रोज पटकती हैं लहरें सर काहे को।
उठ उठ गिरती हैं साहिल पर काहे को।।
दूर क्षितिज पर आ धरती के पैरों पर
गिर गिर जाता है वह अम्बर काहे को।।
हम सागर में मीलों अंदर जाते हैं
तुम साहिल पर हो तुमको डर काहे को।।
सागर डरता है बादल बन जाने से
वरना उठता रोज बवण्डर काहे को।।
जो मरने से डरते हैं वे क्या जाने
साहिल साहिल हैं अपने घर काहे को।।
वैतरणी हिमगिरि से पार अगर होती
सारे जाते गंगा सागर काहे को।।
लादे फिरते हो दुनिया की चिन्ताये
तुम अदीब बन बैठे शायर काहे को।।
सुरेश साहनी,अदीब
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