काश्मीर के महाराजा हरिसिंह अपनी हठधर्मी के चलते स्वतंत्र रहना चाहते थे। जब पाकिस्तान की सेना ने पख्तून लड़ाकों के वेश में अपनी सेना से हमला करवाया तब इस राजा ने लार्ड माउंटबेटन से मदद मांगी। गवर्नर जनरल ने भौगोलिक परिस्थितियों का हवाला देते हुए स्वतंत्र राज्य बनने देने का कोई विकल्प स्वीकार नहीं किया। भयभीत महाराज हरिसिंह ने तब भारत से मदद मांगी। भारत ने तब महाराजा के सामने विलय का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया   हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसेशन पर हस्ताक्षर किए और गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर, 1947 को इसे स्वीकार कर लिया।

समझौते के दौरान लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा कि “यह मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर में कानून-व्यवस्था बहाल हो जाए और उसकी धरती पर आक्रमणकारियों को हटा दिया जाए, तब जनमत संग्रह के जरिए विवाद को सुलझाया जाएगा।” 

भारत सरकार ने स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में जेल से शेख अब्दुल्ला को रिहा करवाकर वहां की बहुसंख्यक जनता का विश्वास बनाना चाहा, जिसमे वह सफल भी हुए।किन्तु बाद में शेख अब्दुल्ला भी आज़ादी की बात करने लग गया। यही वह बड़ा कारण था जिसके चलते बाद में भारत ने जनमत संग्रह कराने से इनकार कर दिया। कारण साफ था अमेरिका और ब्रिटेन की इच्छा थी कि काश्मीर पाकिस्तान में मिल जाये। माउंटबेटन भी यही चाहते थे।यूएनओ में संयुक्त राष्ट्र के वार्ताकार नेहरू से द्विपक्षीय संवाद की जानकारियां चीन के जरिये पाकिस्तान तक पहुंचा रहे थे।शेख अब्दुल्ला ने भी जब आज़ादी का राग अलापना चालू किया तो नेहरू को झटका सा लगा। 

17 मई, 1949 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल और एन गोपालस्वामी अयंगर को जानकारी देते हुए तक्कालीन कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को चिट्ठी लिखी थी। जिसमें उन्होंने कहा था, “भारत में यह नीति तय की गई है, जिस पर कई मौकों पर मेरे और सरदार पटेल के बीच बातचीत हुई है। इसके मुताबिक जम्मू-कश्मीर के संविधान का फैसला संविधान सभा में राज्य के प्रतिनिधियों द्वारा की जाएगी।”

कालांतर में भारतीय राजनयिकों ने कश्मीर के बड़े हिस्से में पाकिस्तानी सेना और संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों की मौजूदगी का विरोध किया। संयुक्त राष्ट्र का अभिमत था कि जनमत संग्रह के बाद पाकिस्तानी सैनिक वापस चले जायेंगे।भारत ने उनकी चाल को समझते हुए तत्कालीन परिस्थितियों में  जनमत संग्रह कराने से इनकार कर दिया।

  दरअसल काश्मीर के नेताओं ने आरम्भ से धोखा दिया है।और यह धोखा केवल पंडित नेहरू या भारत सरकार को ही नहीं अपितु काश्मीर की अवाम को भी मिला है। हरिसिंह सरकार से लेकर महबूबा मुफ्ती तक सबने यही किया है। ऐसे धोखेबाज नेताओं से नैतिक व्यवहार बेमानी सा लगता है। किंतु अफसोस केवल इस बात का है कि इन वक्ती लकीरों या सीमा रेखाओं में फंसकर काश्मीर की जनता को परेशान होना पड़ रहा है।आतंकवाद का रावण हर बार उनकी अमन चैन की सीता को हर ले जाता है।और हर बार भारतीय सेनाएं उनको पुरुषोत्तम की तरह रावण के कब्जे से निकाल तो लाती है। पर देशभक्ति की अग्नि परीक्षाएं उन्हें अयोध्या तक देनी पड़ती हैं। खैर!किसी ने कहा है--

     "इतिहास के पन्नों ने वो दौर भी देखा है

      लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पायी।।,,


  और भारत की संविधान सभा ने कतिपय राज्यों की परिस्थितियों के अनुसार विशेष राज्य का दर्जा देने के लिए धारा 370 का बिल पास किया।जिसके तहत जम्मू और काश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया। 

  लगभग ऐसी ही परिस्थितियों में नगा उग्रवादी समूहों और भारत सरकार के मध्य 3 अगस्त 2015 को एक समझौता किया गया जिसके अन्तर्गत निम्न आठ शर्ते मानी गयीं। ईश्वर करे कल ये कोई बड़ी भूल न साबित हो।

(लेख- सुरेशसाहनी, कवि और विचारक )

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