मेरे अंजाम से कुछ तो अलग हो।

ख़ुदा भी नाम से कुछ तो अलग हो।।


अभी भी मौत पाती हैं वफ़ाएँ

के इस ईनाम से कुछ तो अलग हो।।


वही दिन रात की फिक्रें मुसलसल

सुबह से शाम से कुछ तो अलग हो।।


मेरे क़िरदार की तौफ़ीक़ बदले

कि इस बदनाम से कुछ तो अलग हो।।


 कि हद नज़रे-उफ़क़ की कुछ तो बदले

फ़लक़ से बाम से कुछ तो अलग हो।।


निगाहों से पिला दे आज साक़ी

ये मयकश आम से कुछ तो अलग हो ।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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