जब मुझको सारे पत्थर दिल कहते है।

कैसे बुत को लोग रहमदिल कहते हैं।।


मुझ कबीर को कहते हैं मैं अनपढ़ हूँ

पर नफ़रत वालों को क़ामिल कहते हैं।।


मैं क्या हूँ मैं पूछ रहा हूँ यारब से

कहने वाले ख़ुद को क़ाबिल कहते हैं।।


मरघट पर भी मंज़िल मेरे हाथ नहीं

लोग मरहलों को भी मंज़िल कहते हैं।।


उनसे नज़र मिले भी बरसों बीत गये

जाने क्यों सब मुझको बिस्मिल कहते हैं।।


हुस्न मुझे कुछ तोहमत दे इनकार नहीं

दिल वाले क्यों मुझको बेदिल कहते हैं।।


हाथ पसारे जाना है जब दुनिया से

फिर जग वाले किसको हासिल कहते हैं।।


हँस कर मैंने जिन पर जान निछावर की

वे तानों में मुझको बुज़दिल कहते हैं।।


मैं तो दिल को उनका मंदिर कहता था

पर वे अपने दिल को महफ़िल कहते हैं।। 


वो क्या मुझसे इश्क़ के मानी समझेंगे

जो मेरी राहों को मुश्किल कहते हैं।।


सुरेश साहनी,अदीब

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