अधूरी जिंदगी की ख्वाहिशे हैं।
हर एक सूं गर्दिशे ही गर्दिशें हैं।।
यहाँ मिटटी का एक मेरा ही घर है
मेरे घर के ही ऊपर बारिशें हैं।।
मेरा हासिल न देखो मुख़्तसर है
ये देखो क्या हमारी कोशिशें हैं।।
इसे कह लो मेरी दीवानगी है
हम अपने कातिलों में जा बसे हैं।।
मेरी मंजिल मगर आसां नहीं हैं
यहाँ तो हर कदम पर साजिशें हैं।।
मुहब्बत से बड़ा मजहब नहीं है
तो क्यों दुनियां में इतनी रंज़िशें हैं।।
सुरेश साहनी ,कानपुर
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