इतवार को आलस्य को सिर चढ़कर बोलना चाहिए।लेकिन ऐसा नहीं होता। सप्ताह के छह दिन तो सुबह उठना तकलीफदेह रहता है।अलार्म बजते बजते परेशान हो उठता है। कई बार अलार्म की घण्टी बजते ही बंद कर देते हैं।लेकिन उससे घड़ी की सुइयों पर कोई फर्क नहीं पड़ता।फिर उठते गिरते दौड़ते भागते ड्यूटी पहुँच ही जाते हैं।यद्यपि यह तेजी सड़क पर नहीं रहती।यहाँ मेरा संतोषी होना मेरे काम आता है।सोचता हूँ "होइहि सोई जो राम रुचि राखा।।,
पर रविवार की सुबह मैं जल्दी जाग जाता हूँ।मुझे लगता है कि रोज अकड़ कर बांग देने वाला मुर्गा भी सन्डे को मुझे देखकर शर्मिंदा हो जाता है।उधर पास के गुरुद्वारे से आवाज़ आ रही है 'कोई बोले राम राम कोई ख़ुदाये".....
मैं सुबह एक गिलास गुनगुना पानी एक बिस्किट और फीकी चाय लेने के पश्चात घर से प्रातःकालीन भ्रमण के लिए निकल पड़ा हूँ। उधर से मंदिर वाले पंडित जी आते दिख गये।मैंने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने जियत रहाS बच्चा! का आशीर्वाद दिया। आगे कूड़ा गाड़ी लिये जमादार खड़ा था। उसने देखते ही भैया राम राम कहा।मैंने भी राम राम कहकर जवाब दिया।अक्सर सुबह सुबह लोग राम राम कहके ही अभिवादन करते हैं।
मैं अत्यंत शांत चित्त होकर मनन करते हुए आगे बढ़ गया।आगे चौराहे पर एक सद्यःउत्पन्न जनसेवक जी मजमा लगाए खड़े हैं।हा हा ही हू और बतकही के बीच नेता जी से मैंने नमस्कार किया।नेता जी ने भी जय जय श्री राम कहते हुए स्वागत किया।बाकी अन्य साथी वैसे ही खड़े रहे जैसे किसी बड़े दबंग के साथ उनके लठैत खड़े रहे। इस बीच यह कल्चर तेजी से बढ़ा भी है । भैया जी से ज्यादा भैया जी के साथ वाले माननीय बन जाते हैं।और इसमें दलीय प्रतिबद्धता जैसी कोई बात नहीं।क्योंकि इस कल्चर के लोग सिमकार्ड की तरह पार्टियाँ बदलते हैं।जिस कम्पनी तात्कालिक सेवा काम लायक होती है,उसी का सिम लगा लेते हैं।खैर मैं नेता जी के जयकारे में आत्मीयता तलाश रहा हूँ।
वैसे मैंने मुर्दा घाटों पर देखा है कि चाहे कबीरपंथी हों या नाथ सम्प्रदाय के लोग,चाहे शैव हो या वैष्णव,साकार हो चाहे निरंकार सभी "राम नाम सत्य है, बोलते हुए आते हैं।अंतिम संस्कार वे भले किसी विधि से करें।क्योंकि भारत मे अनेकानेक दर्शन,पंथ और सम्प्रदाय हैं। लेकिन राम शब्द एक ऐसा शब्द है जो परब्रह्म परमेश्वर का पर्याय हो चुका है।
कबीर ही कहते हैं:-
"एक राम दशरथ का बेटा
एक राम घट घट में लेटा
एक राम का सकल पसारा
एक राम सब जग से न्यारा"
और देखा जाय तो पूरा उत्तर भारत कबीर के राम में रमा दिखाई पड़ता है।उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अयोध्या के राजा राम हैं अथवा संसार से न्यारे कण कण में व्याप्त राम हैं।
वस्तुतः राम नाम हिंदुत्व ही नहीं अपितु अध्यात्म और वेदान्त में सर्वोच्च अभीष्ट आत्मिक शांति का सहज बोध हो चुका है। इसीलिए तो "जासु नाम त्रय ताप नसावन' को सहज भाव से एक भंगी भी ले कर कुछ क्षण के लिए सही मानव मात्र में ब्रम्ह की सत्ता का बोध करा देता है। और मैं भी कबीर को गुनगुनाते हुए चलता हूँ कि-
"राम नाम रस भीनी चदरिया झीनी रे झीनी" और अपने साथ परम् सत्ता के जुड़ाव का बोध पा लेता हूँ।
सुरेश साहनी, कानपुर
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