विष लेकर था आकंठ भरा
अमृत पाकर घट रीता भी।
मैं जब जीता कुछ हार गया
सब हार गया तब जीता भी।।
मैं दीपक बन कर जला किन्तु
तुमने छाया सा छला किन्तु
आजीवन आश्रय दिया तुम्हें
मैं ख़ुद अनाथ सा पला किन्तु-
मैं साथ निभाकर पत्तित रहा
तुम छल कर रही पुनीता भी।।
भिक्षुक बन तुमने छला मुझे
मैं दाता मेरा हरण हुआ
निष्ठा का प्रतिफल परित्याग
परिहरण हुआ या मरण हुआ
फिर कितनी अग्नि परीक्षाये
दे पाती आखिर सीता भी।।
यह नारी और पुरुष वाली
गाथा कब दोहराओगे
परिवाद रहेंगे युग युग तक
कितने दिन दोष छुपा लोगे
कब पुरुष रहे कब नारी तुम
यह बता न पाई गीता भी।।
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