आज के युग की सभी सम्वेदनाएँ मर चुकी हैं।

या कि केवल युग बचा है चेतनाएं मर चुकी हैं।।


लोग जिंदा हैं कि मुर्दा कुछ पता चलता नहीं है

यातना इतनी सही है वेदनायें मर चुकी हैं।।


जी रहे हैं दास बनकर अपनी आदत में है वरना

अर्गलायें सड़ चुकी हैं, मेखलायें मर चुकी हैं।।


प्रार्थना जो कर रहे हो कब सुनी किस देवता ने

देवता क्या हैं कि इनकी आत्मायें मर चुकी हैं।।


याचना से कुछ न होगा क्रांति के नारे उछालो

मंत्र कुंठित हो चुके हैं अब ऋचाएं मर चुकी हैं।।


रास्ता यह सिंधु देगा है हमें सन्देह लक्ष्मण

राम भय बिनु प्रीति की सम्भावनायें मर चुकी हैं।।


सुरेश साहनी

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है