कलम तलवार से कुछ अलहदा है।
ये घर बाज़ार से कुछ अलहदा है।।
तुम्हारे रंग कुछ बदले हुए हैं
असर उस प्यार से कुछ अलहदा है।।
नहीं है ये मेरी दुनिया ख़ुदारा
बशर संसार से कुछ अलहदा है।।
खिंचे रिश्तों में फिर कब टूटती है
ये हर दीवार से कुछ अलहदा है।।
तुम्हारी सोच में जंगल है डर क्या
शरर अंगार से कुछ अलहदा है।।
हक़ीक़त क्या है ये भगवान जाने
ख़बर अख़बार से कुछ अलहदा है।।
ये क़ातिल कारकून-ए- सल्तनत है
मगर सरकार से कुछ अलहदा है।।
कलम रख दें कि अपने होठ सी लें
ये डर हरबार से कुछ अलहदा है।।
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