तीरगी गा रही है राग नये।
ख़ुद जलें या कि लें चिराग़ नये।।
मौत की ज़िंदगी है विधवा सी
ज़ीस्त बदले है नित सुहाग नये।।
रोज़ हम ढूंढते हैं अपने को
रोज़ मिलते हैं कुछ सुराग नये।।
लाख उजले कफ़न में लिपटे हम
ज़ीस्त देती रहेगी दाग नये।।
कूढ़मग़ज़ों से भ्रष्ट है दुनिया
ले के आ दिल नये दिमाग नये।।
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