तमाम उम्र इक सफर ही था।
सराय थी कि जिस्म घर ही था।।
ये क्या पता था मौत मंज़िल है
कि हमसफ़र भी इस का डर ही था।।
अगरचे नामवर होना ही है ख़ुदा होना
तो क्या बुरा है कभी मैं भी नामवर ही था।।
जो आज बस्ती-ए-खमोशी है
ये कल का बोलता शहर ही था।।
किसी भी कौल से हुये आज़ाद
सिलसिला इसका ज़ीस्त भर ही था।।
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