अब कविता लिखने में
झिझकता हूँ
जाने कैसे
मेरी बेरंग कविताओं में
लोग रंग ढूंढ़ लेते हैं।
और वे रंग भी
अलग अलग निकलते हैं।
भगवा,नीला,लाल हरा
और भी न जाने कैसे कैसे
फिर रंग से बना देते हैं
न जाने क्या क्या जैसे-
बिरादरी, पार्टी,फिरका ,मजहब
या फिर कोई देश
ऐसे में बस एक विकल्प बचता है
सादा छोड़ देते हैं कागज़
शायद कबीर भी रहे होंगे
मेरी परिस्थितियों में,
तभी तो उन्होंने कहा है-
मसि कागद छुयो नहीं.........
एक पुरानी कविता
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