तुम अचानक भी चीख उठते हो
तुम भरे पेट हो तो वाज़िब है
तुम किसी पर भी चीख सकते हो
पर किसी दिन तुम्हारी ये आदत
तुम को भारी कहीं न पड़ जाए
और इकदिन तुम्हारी हरकत पर
कोई तुम पर पलट के चीख पड़े
एक दिन कार से भले मानुष
आ के ठहरे थे सिंह ढाबे पर
एक पागल कोई भिखारिन सी
उसको कुछ रोटियां खिलाई थीं
दूर उस पिकेट पर पुलिस वाले
हँस पड़े थे ठठा के जाने क्यों
कुछ सहम सी गयी थी बेचारी
रात कुछ चीखने की आवाजें
वैसे दब सी गयी थी गों गों में
जैसे अक्सर गरीब आवाजें
उठते उठते दबा दी जाती हैं
फिर पगलिया नहीं दिखी सबको
चीखना भी बहुत ज़रूरी है
बहरे कानों को कुछ पता तो चले
वरना कह देंगे कुछ हुआ ही नहीं
और यूँ भी शरीफ लोगो को
कुछ दिखाई भी तो नहीं देता
सुन के शायद ज़मीर जाग उठे---
सुरेश साहनी, कानपुर
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