जब मेरे पिताजी रोज़गार की तलाश में कानपुर आये।उस समय का पूर्वांचल अथवा गोरखपुर मण्डल आज से बेहतर तो नहीं था किंतु सांस्कारिक अवश्य था। पिता जी के माता पिता अल्पायु में उन्हें त्याग गये थे।पुराने लोग जैसे कि हमारे चचेरे बाबा आदि लोग गर्व से बताते थे, °बाबू! बड़का भैया एक्के साँस में भरल चिलम खींच जात रहलें।" 

मुझे ऐसा लगता है यही उनकी असमय मृत्यु का कारण भी रहा होगा। खैर बाद में पिताजी को प्रारब्ध वश जेपी जी और सतासी नरेश स्कूल के प्राचार्य पांडेय जी जैसे संरक्षक भी मिले। यह तब की बातें हैं जिस समय का समाजवाद लैया चना पर चलता था।आज तो समाजवादी नेता बोलेरो पर ही पैदा होते हैं। गांव के बेचन साहू जिन्हें हम बड़का दादा बोलते थे उनकी पत्नी यानि बड़की माई ने एक बार बताया था कि बाबू तुहार बबुआजी यानि पिता जी एक बार खाये बैठल रहलें, ओही टाइम तुहार बड़की माई लोढ़ा चला के मार दिहली कि कमाये धमाये के नईखे आ खाये के अधरी के चाही। ए बाबू!तुहार बाबू जी ओही बेरा  देश (गाँव) छोड़ि दिहलन।" 

मुझे लगता है यह भी ईश्वर की प्रेरणा रही होगी वरना आज हम भी मछरी मारते रहते,या मुम्बई आदि शहरों में भटक रहे होते। जो भी हो इस स्वाभिमानी पलायन से पिता जी स्वतः देशाटन की ओर मुड़ गया।विभिन्न शहरों की यात्रा करते करते वे कानपुर आ पहुंचे थे।और कानपुर ने सही मायने में उन्हें गोद ले लिया।यहाँ उन्हें रामअवतार सविता जैसे मित्र शिवपूजन पांडेय और रामपूजन पांडेय जैसे स्वजन और सलूजा जी नाम के सरदार जी जिनका उस समय उद्योग कुञ्ज में मुर्गी फार्म था ,जैसे धर्म पिता मिले।आज उनके सुपुत्र सरदार अनन्तपाल सिंह सलूजा कनाडा में सुस्थापित हैं।वे पिताजी जी की मृत्यु के दो वर्ष पूर्व बेटे की शादी करने के उपरांत पिताजी का आशीर्वाद लेने कानपुर आये थे।एक लंबे अरसे बाद उन्होंने खोज लिया यह बड़ी बात थी।दोनों भाई मिलके जी भर रोये थे।दिनभर पुरानी स्मृतियां बांटी,गिले शिकवे दूर किये और फिर वे वापस कनाडा उड़ लिए।दो वर्ष रहकर पिताजी भी अनन्त यात्रा पर निकल गये।

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है