बेवजह क्या वक़्त की तस्वीर लेकर बैठना।
भर चुके घावों की दिल मे पीर लेकर बैठना।।
बैठ जाते आप भी झूठी तसल्ली के लिए
आपको था कौन सी जागीर लेकर बैठना।।
इश्क़ है या फिर दिखावा ताज जैसी शक्ल में
जिस्मे-फ़ानी पर कोई तामीर लेकर बैठना
दर्द के सहरा में चश्मे तो उबलने से रहे
याद आता है तुम्हारा नीर लेकर बैठना।।
हम कोई तदबीर क्या करते मुक़म्मल वस्ल की
खल गया बस आपका तक़दीर लेकर बैठना।।
टूटती साँसों को लेकर इश्क़ भटका दरबदर
हुस्न का अच्छा न था अक्सीर लेकर बैठना।।
इश्क़ का मरहम अज़ल से है कयामत तक मुफीद
हुस्न क्या है चार दिन तासीर लेकर बैठना।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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