महीष के निधन की सूचना पाकर श्रृंगवेरपुर नरेश अपनी बहन से मिलने चल दिये थे।एक सप्ताह की अनवरत यात्रा के पश्चात् नीलगिरी पहुँच सके थे।क्लान्त मुख और अस्तव्यस्त वसन धारी नरेश जैसे ही बहन के सम्मुख पहुँचे, उसने रोना बन्द कर दिया।नरेश आश्वस्त हुए कि उनके आने का प्रयोजन सिद्ध हुआ।किन्तु यह क्या! अचानक उनकी बहन चीखने लगी थी।उसका चेहरा क्रोध से तपने लगा था।नरेश ने उसे सांत्वना देने की चेष्टा की।किन्तु बहन ने उन्हें फटकारते हुए कहा,- 

   दूर हटो भैया !पितामह और तुम लोगों की तथाकथित मित्रता के कारण ही आज वनमित्रों की यह दुर्दशा हो रही है।जाओ क्षणिक भावुकता और एक पक्षीय निष्ठा जिसे तुम मित्रता कहकर गर्वान्वित हो रहे हो।यह मित्रता एक दिन तुम्हारे और समस्त शैव समाज की दासता का कारण बनेगी। जिस तरह आज मैं अपने राज्य से च्युत हूँ,एक दिन सारा समाज अपने अधिकारों से वंचित हो जायेगा।राजन तुम्हारे वंशज इन गलतियों का दण्ड कलिकाल तक    पाएंगे।

 श्रृंगवेरपुर नरेश अपने पितामह गुह्यराज को याद कर फफक पड़े थे।

सुरेश साहनी,

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