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Showing posts from September, 2023
 शायद तुम मुस्काना चाहो। खुशियों को अपनाना चाहो।। मन मत मारो पा सकते हो जो तुम दिल से पाना चाहो।। गागर फूटी एक दुखद है दूजी गागर ले सकते हो दुख पर रक़्स करो फिर देखो खुशियाँ मन भर ले सकते हो नभ ने बाँह पसार लिए हैं उड़ो अगर तुम आना चाहो ।। रात्रि गहन थी तो क्या अब तो सुखद लालिमा झांक रही है क्यारी क्यारी किलकी कलियां रश्मि रथों को ताक रही हैं उठो रोशनी बन यादों के तम को यदि बिसराना चाहो ।। पतझर का संकेत यही है ऋतु राजा को फिर आना है आना जाना जाना आना जीवन का ताना बाना है जीवन है संगीत समझ लो गाओ बस तुम गाना चाहो ।। सुरेश साहनी
 दर्दोग़म हम भूल चुके हैं। उनके सितम हम भूल चुके हैं।। भूल गये हैं ज़ख़्म उभरना हर मरहम हम भूल चुके हैं।। क्यों अब उनको याद रखे जब अपना हम हम भूल चुके हैं।। आप अभी तक उन बातों पर हैं बरहम हम भूल चुके हैं।। सूख चुका है दिल का दरिया अब संगम हम भूल चुके हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
 कल तक बेचे झूठे सपने। ख़ुद पर बीती लगे तड़पने।। और तमाशाई भी कैसे ग़ैरों से ज्यादा कुछ अपने।। कैसे वे फरियाद सुनेंगे मुंसिफ जी निकले कनढपने।। ज्यूँ खुलता है भेद लुटेरे राम नाम लगते हैं जपने।। ज़िक्र जफ़ा का यूँ ही आया लेकिन आप लगे क्यों तपने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ग़ज़ल कहते हुए डर लग रहा है। कहीं कुछ है जो दिल पर लग रहा है।। तुम्हें दिखता है उसका खुरदुरापन मुझे वो सख्श सुन्दर लग रहा है।।
 वजह मौसम के बदलने की बता तो जाते । बात रुकने की न चलने की बता तो जाते।। गये तो हो मगर मेरा सुकूने दिल लेकर कोई तरकीब बहलने की बता तो जाते।।  आप मुझको छोड़कर चाहे जहाँ जाए। हम ज़हाँ को क्या बताये हम कहाँ जाए।। ज़इफ़ों के चले जाने पे कम तकलीफ होती है खुदाई काँप उठती है अगर कोई जवाँ जाए।।
 तुमको पाने की कोशिश में  क्या क्या खोया मैंने। क्या रख पाया, क्या क्या छूटा  क्या सँजोया मैंने।। बाल सुलभता और सहजता , खोकर पाया यौवन हम उम्रों से प्रतिस्पर्धाये,  अन्तस् में अवगुंठन कुंठाओं को कोमल मन पर  कितना ढोया मैंने।। अपयशता ने सीमाओं से  बाहर पर फैलाये तुमसे भी बेरुखी मिली  अपने भी हुए पराये बिखरे मनके मन के  कितनी बार पिरोया मैंने।। एक ख़ुशी पाने की खातिर,  कितने दुःख ले बैठे क्या क्या चाहा था जीवन में  हम क्या कुछ ले बैठे मिली कंटकों की डग,  था फूलों को बोया मैंने।। कुछ अपने भी छूटे तुमको पाने की कोशिश में कुछ सपने भी टूटे इक सच करने की कोशिश में वक्त मिले तो सोचूं क्या  खोया क्या पाया मैंने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 व्यक्तिगत अच्छाइयों की आड़ में सामूहिक बुराईयों को छिपाना  हम बख़ूबी सीख गए हैं   हम मुसोलिनी को श्रद्धांजलि देते हैं  हम सीख गए है बधाई देना जन्मदिन की गोर्बाचेव को  और हर उस आदमी को भी जिसने लाखों घर उजाड़कर बना दिये कुछ मन्दिर  जहाँ लिखा है भिखारियों का प्रवेश वर्जित है।।
 कोशिशन उसको भूलाता ही रहा। पर वो फिर फिर याद आता ही रहा।। कितने बुत थे उस हरम में क्या कहें मुझसे वो सब कुछ छुपाता ही रहा।। चारागर था वो  नए अंदाज का दर्द को मरहम बताता ही रहा।। मरने वाले में कोई खूबी न थी सब की खातिर बस कमाता ही रहा।। दाँव पर मुझको लगाकर उम्रभर बेवफा चौसर बिछाता ही रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुमने मेरा बचपन छीना तुमने तरुणाई छीनी है। तुमने सखियों से दूर किया तुमने तनहाई छीनी है सब खेल खिलौने घर आँगन झूलों का सावन लूट लिया जो दर्पण देख लजाती थी तुमने वह दर्पण लूट लिया मैं बनी बावरी फिरती हूँ तुमने चतुराई छीनी है।। तुमने मेरा बचपन छीना...... मन से तुमको स्वीकार किया तुमने तन पर अधिकार किया जिस मन से तुम्हे समर्पित हूँ क्या तुमने अंगीकार किया पूछो अपने दिल से किसने मेरी अंगड़ाई छीनी है।। तुमने मेरा बचपन छीना...... सुरेशसाहनी, कानपुर
 उछल कर आसमानों को पकड़ लें। कहो तो प्यार से तुमको जकड़ लें।। मुहब्बत और बढ़ जाए अगरचे हम आपस मे ज़रा सा फिर  झगड़ लें।।  अभी मौसम सुहाना हो गया है  चलो फिर साइकिल पर इक भ्रमण लें।। चलो तुम भी तनिक तैयार हो लो रुको हम भी ज़रा खैनी रगड़ लें।। बला की खूबसूरत लग रही हो कहो तो एक चुम्बन और जड़ लें।। अभी रक्ताभ सूरत हो गयी है छुपाओ ये ज़हां वाले न तड़ लें।। चलो करते हैं कैंडल लाइट डिन्नर किसी होटल में मनमाफिक हुँसड़ लें।। चलो कुछ साल पीछे लौटते हैं इधर कुछ लोग हैं उस ओर बढ़ लें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अक्सर उसको लोग ग़ज़ल भी कहते हैं। कुछ तो ज़िंदा ताजमहल भी कहते हैं।। उसको समझना बेशक़ मुश्किल है लेकिन उसको हर मुश्किल का हल भी कहते हैं।। कुछ कहते हैं मू - ए-मुकद्दस है तो कुछ लोग इसे ही हज़रत बल भी कहते हैं।। उसकी ज़ुल्फ़ें लंबी नज़्में लगती हैं कुछ उसको किस्मत का बल भी कहते हैं।। उसका चेहरा क्या नूरानी है वल्लाह देखने वाले  सुर्ख कँवल भी कहते हैं।। कहने वाले कहते हैं दीवाना भी  कहने वाले ही पागल भी कहते हैं।।
 जितना मुझसे दूर रहोगे। उतना ग़म से चूर रहोगे।। कुछ आदत से,कुछ फ़ितरत से कुछ दिल से मजबूर रहोगे।। इतना इतराते हो हरदम क्या ज़न्नत के हूर रहोगे।। जब ना रहेंगे दीवाने तब तुम भी कहाँ फितूर रहोगे।। साये को तरसोगे तुम भी बेशक़ बने खजूर रहोगे।। इश्क़ की आंखों में बस जाओ बोतल बन्द सुरूर रहोगे।। हम होंगे ख़िदमत में जानम तुम भी मेरे हुज़ूर रहोगे।। लिख डालो तारीख़ नहीं तो  पन्नों से काफूर रहोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दिल से मेरी तस्वीर लगाने का सबब क्या। जब प्यार नहीं है तो बताने का सबब क्या।। निस्बत ही नहीं कोई तो शिकवे हों भला क्यों है प्यार मुहब्बत तो सताने का सबब क्या।। जब दूर ही रहना है तो जाओ कहीं रहलो अंगनाई में दीवार उठाने का सबब क्या।।
 दुनिया मे सचमुच वही है असली धनवान। जिसके होठों पर मिले यह निश्छल मुस्कान।।साहनी
 ओ नीले आकाश में विचरने वालों अब मैं जान गया हूँ नीला आसमान क्या है यकीनन तुम चतुर हो तुम नीले समुद्र को  नीला आकाश कह सकते हो तुम्हारे शब्द जाल हमसे अच्छे हैं पर अब हमने भी सीख लिया है सागर को आसमान कहना  और आसमान में  ढेर सारी सम्भावनायें तलाशना
 एक तुम्हे पाने कि धुन में कितनों को ठुकराया मैंने। अब जाकर यह सोच रहा मन क्या खोया क्या पाया मैंने।।
 जुल्फों के साये में तेरे इक शाम तो मिले। इस इश्के-नामुराद को अंजाम तो मिले।। दिन रात चल रहा है ज़माने के साथ साथ सांसों का कारवां रुके आराम तो मिले।। ये रात दिन की फ़िक्र कटे भी तो तरह तेरा ग़म जहेनसीब कोई काम तो मिले।। दीवानगी में दर्द -दवा सब कुबूल है तेरी तरफ से कोई भी इनाम तो मिले।। रुसवाईयाँ कुबूल है गर तेरा साथ हो बदनामियों के बीच कोई नाम तो मिले।। Suresh Sahani
 कुछ वज़ह हो तो अदावत कर लें। और किस बात पे हुज्जत कर लें।। फिर कभी तुमसे मिलें या ना मिले आज जी भर के शिकायत कर लें।। आ ही जाती हो मेरे ख्वाबों में लाख पलकों से बगावत कर लें।। रंज़ो-ग़म यूँ भी बहुत हैं जबकि क्यूँ ये सोचा कि मुहब्बत कर लें।। हम ही अहमक थे कि दिल दे बैठे तुम ने सोचा कि शरारत कर लें।। अब भी उल्फ़त में मेरी जां तुमसे तुम जो चाहो तो किताबत कर लें।  सुरेश साहनी, कानपुर
 महीष के निधन की सूचना पाकर श्रृंगवेरपुर नरेश अपनी बहन से मिलने चल दिये थे।एक सप्ताह की अनवरत यात्रा के पश्चात् नीलगिरी पहुँच सके थे।क्लान्त मुख और अस्तव्यस्त वसन धारी नरेश जैसे ही बहन के सम्मुख पहुँचे, उसने रोना बन्द कर दिया।नरेश आश्वस्त हुए कि उनके आने का प्रयोजन सिद्ध हुआ।किन्तु यह क्या! अचानक उनकी बहन चीखने लगी थी।उसका चेहरा क्रोध से तपने लगा था।नरेश ने उसे सांत्वना देने की चेष्टा की।किन्तु बहन ने उन्हें फटकारते हुए कहा,-     दूर हटो भैया !पितामह और तुम लोगों की तथाकथित मित्रता के कारण ही आज वनमित्रों की यह दुर्दशा हो रही है।जाओ क्षणिक भावुकता और एक पक्षीय निष्ठा जिसे तुम मित्रता कहकर गर्वान्वित हो रहे हो।यह मित्रता एक दिन तुम्हारे और समस्त शैव समाज की दासता का कारण बनेगी। जिस तरह आज मैं अपने राज्य से च्युत हूँ,एक दिन सारा समाज अपने अधिकारों से वंचित हो जायेगा।राजन तुम्हारे वंशज इन गलतियों का दण्ड कलिकाल तक    पाएंगे।  श्रृंगवेरपुर नरेश अपने पितामह गुह्यराज को याद कर फफक पड़े थे। सुरेश साहनी,
 अब क्या अखबारी चरित्र है। पूजित  दरबारी   चरित्र है।। पत्रकार मत कहिये उनको जिनका बाज़ारी चरित्र है।। सच का गला घोंट देना ही अब का सरकारी चरित्र है।। मोटी चमड़ी सम्मानित है यह भी व्यवहारी चरित्र है।। कर्मठता अब निंदनीय है चोरी मक्कारी चरित्र है।। चकाचौंध विज्ञापन वाला केवल व्यापारी चरित्र है।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 ढूंढें आज पुरानी बातें। जानी या अनजानी बातें।। बातें  जैसे  बेगानों  से  अपनों से बेगानी बातें।। अहमक बच्चों से करते हैं बूढ़ी और सयानी बातें।। खोजें प्यार दुलारों वाली फिर नाना नानी की बातें।। अम्मा की यादों में डूबी बाबू की पहचानी बातें।। फ़ौजदरियां करवाती हैं नफरत की दीवानी बातें।। कुछ अच्छा करने की खातिर छोड़ो यार पुरानी बातें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सूख चुके जब आस सरोवर  श्याम घटा घहराने को आओ। धर्म ध्वजा फहराने को आओ।। गोपियाँ राह तके रख के घर माखन नेक चुराने को आओ।। बंशी की तान सुनाने को आओ नन्द की धेनु चराने को आओ।। सुनी पड़ी गलियां ब्रज की मन मोहन रास रचाने को आओ।। राधा के नैन जुड़ाने को पीने को प्रेम सुधा बरसाने को आओ।।
 सांवरे जो तेरी बांसुरी बंद है। इसलिए आज दुनिया में छलछंद है।। श्याम जब से तेरी बाँसुरी बंद है। ये धरा त्रस्त है कंस निर्द्वन्द है।।...... लाल कालीन चुभती रही पांव में भाग कर आ गए प्यार के गांव में   धूप में हमको  चलना ही बेहतर लगा  जबकि जलते रहे कोट की  छांव में  दुख हरो नाथ फिर मा शुचः बोलकर  तेरे चरणों मे केशव कहाँ द्वंद है।।.... सांवरे क्यों तेरी बाँसुरी बंद है।।.... रास्ता अब कोई सूझता ही नहीं गोपियों को कोई पूछता ही नहीं हर तरफ़ है घृणा हर तरफ द्वेष है प्रेम के आसरों का पता  ही नहीं आज स्वछंद हैं आसुरी वृत्तियां  हर तरफ है तमस हर तरफ धुन्ध है।।..... श्याम जब से तेरी बांसुरी बन्द है।।...... रूप की चाह में मन अटकता रहा काम की कन्दरा में भटकता  रहा देह अनुरिक्तियों में विचरती रही एक असंतोष मन मे खटकता रहा आज मालुम हुआ क्या है आनंद सत  जो है सद्चित्त वो ही सदानंद है  ।।..... श्याम जब से तेरी बांसुरी बन्द है।।..... सुरेश साहनी, कानपुर
प्यार करिये तो दिल खुला रखिये। वरना दो ग़ज़ का फासला रखिये।। आप की ख़ुद से निभ नहीं पाती क्या ज़रूरी है काफिला रखिये।। गरचे कुव्वत है सर कटाने की  इश्क़ में तब ही दाख़िला रखिये।। ज़ब्त करिये हरेक ग़म दिल में और चेहरा खिला खिला रखिये।। मुश्किलें आप ही सहल होंगी ख़ुद के आगे तो मसअला रखिये।। उलझनों से निजात पानी है ख़ुद को बच्चों में मुब्तिला रखिये।। हुस्न बेशक़ जलाल पर होगा बस मुहब्बत से सिलसिला रखिये।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर
 तुम्हारे हुस्न का हमने तो एहतराम किया। हमारे इश्क़ को तुमने कहाँ सलाम किया।।
 ज़िक्रे-उल्फ़त से बहक जाते हैं। हम  मुहब्बत से बहक जाते हैं।। हम मशक्कत से मनाते हैं उन्हें वो नज़ाकत से बहक जाते हैं।। उनकी मदहोश नज़र से मिलकर हम तबीयत से बहक जाते हैं।। कौम के लोग है भोले इतने हर क़यादत से बहक जाते हैं।। साहनी  दिल के हैं सादिक़ इतने पर नज़ाकत से बहक जाते हैं।। सुरेश साहनी
 आसमान से झांकते तारों की सौगंध। होता है हर स्वप्न का धरती से अनुबंध।।SS
 सैनिक मरा किसान मर गया। बूढ़ा और जवान मर गया।। राजनीति रह गयी सलामत बेशक़ इक इंसान मर गया।।सैनिक ..... जाने किसकी जान बिक गयी अच्छी भली दुकान बिक गयी नाम बिक गया शान बिक गयी क्या अब कहें जुबान बिक गयी घर परिवार बचा रह जाये इसी लिए ईमान बिक गया।।1 शिक्षा अब व्यापार बन गयी राजनीति रुजगार बन गयी लाठी गोली बंदूकों से मिल जुल कर सरकार बन गयी गण गिरवी है तंत्र बिका तो बाबा तेरा विधान बिक गया।।2 नाम बचा तो शेष बिक गया सरकारी आदेश बिक गया  विस्मित जनता सोच रही है क्यों इनका गणवेश बिक गया ध्वज को कौन सम्हालेगा अब जबसे बना प्रधान बिक गया।।3 सुरेश साहनी , कानपुर
 इश्क़ पर से अब यक़ी जाता रहा। हुस्न रह रह कर के भरमाता रहा।। मन को बच्चे सा हुलसता देखकर वक़्त रह रह कर के दुलराता रहा।। एक था मजबूत दिल इस जिस्म में  जाने कैसे डर से घबराता रहा।। वो भी झूठे ख़्वाब दिखलाते रहे मैं भी अपने दिल को समझाता रहा।। हद तो है उसकी ख़ुशी के वास्ते अपने दिल के दर्द झुठलाता रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ये पट्टीदार चेहरे पर सगे हैं। पराये हो गए हैं पर सगे हैं।। भले कल घाव पर मरहम थे लेकिन अभी चुभते हुए नश्तर सगे हैं।। नहीं है एक घर अपना कहे जो मगर कहने को सारे घर सगे हैं।। बरम बाबा की डेहरी पर आकर लगे हैं अब भी वे पत्थर सगे हैं।। सगे आदर न् दें फिर भी चलेगा कि हम देंगे उन्हें आदर सगे हैं।। हमारा गाँव मजरा सब सगा है शिवाले डीह दैरो-दर सगे हैं।। सगों से बढ़के दूजे प्यार देंगे जो बोलो प्यार से कहकर सगे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर

मुक्तक

 भाव गंगा के प्रदूषक बन नहीं सकते। सहज कवि हैं हम विदूषक बन नहीं सकते। नाग हैं हम नीलकंठी सत्य उगलेंगे अन्न के हम चोर मूषक बन नहीं सकते।।
 आशिक़ी काम कर गयी आख़िर। अपनी किस्मत सँवर गयी आख़िर।। प्यास लौटी हज़ार चश्मों से आरिजों पर ठहर गयी आख़िर।। जिसमें यादें थी मेरे बचपन की वो हवेली किधर गयी आख़िर।। उम्र के इस पड़ाव पर आकर अपनी आदत सुधर गयी  आख़िर।। मौत से जंग जंग होती है ज़िंदगानी मुकर गई आख़िर।। ज़ीस्त तन्हा शहर में क्या कटती हार कर अपने घर गयी आख़िर।।
 काश ऐसा समाज हो जाये। हर कोई दिलनवाज हो जाये।। ग़म भी हँस के करे कुबूल तो फिर आदमी खुशमिजाज हो जाये।। सर उठाये कहीं कोई रावण उसके मुखलिफ़ समाज हो जाये।। ये न् हो उसके इश्क़ में पड़कर जीस्त अपनी मिराज हो जाये हुस्न महमूद हो न हो लेकिन इश्क़ उनका अयाज़ हो जाये।। ये अना छूटती नहीं वरना आदमी इम्तियाज हो जाये।। आदमी आदमी से प्यार करे हर कहीं रामराज हो जाये।। सुरेश साहनी कानपुर
 ज़िन्दगी फिर रूबरू होंगे सुबह तब तलक जाकर कहीं आराम कर।। कुछ नहीं तो  हसरतों  को नींद दे हो सके कुछ ख़्वाब मेरे नाम कर।। या मेरी नाकामियों को काम दे या मेरी नाकामियां नाकाम कर।। या तो आसां कर मेरी दुश्वारियाँ  या मेरी कोशिश को मत बदनाम कर।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 तमाम उम्र इक सफर ही था। सराय थी कि जिस्म घर ही था।। ये क्या पता था मौत मंज़िल है  कि हमसफ़र भी इस का डर ही था।। अगरचे नामवर होना ही है ख़ुदा होना तो क्या बुरा है कभी मैं भी नामवर ही था।। जो आज बस्ती-ए-खमोशी है ये कल का बोलता शहर ही था।। किसी भी कौल से हुये आज़ाद सिलसिला इसका ज़ीस्त भर ही था।।
 आ भी जाओ कि ऐतबार रहे। किसलिए और इंतज़ार रहे।। इश्क़ मक़तल नहीं मगर तय कर मैं रहूँ या मेरा मजार रहे।।
 पहले जी भर कर सता लेगा मुझे। फिर मुहब्बत से मना लेगा मुझे।। ऐसे देखेगा कि मैं तस्वीर हूँ फिर वी आईना बना लेगा मुझे।। याद दिल करता फिरेगा उम्र भर यूँ वो बातों में भुला लेगा मुझे।। एक छोटी सी खुशी के वास्ते आज लगता है रुला लेगा मुझे।।
 भले उड़े चिन्दी पर चिन्दी। भले लगे कवियों पर बिंदी ।। हिंदी पर कविता मे चाहे जैसे आये आये हिंदी ।। बच्चे पढ़ते कॉन्वेंट में हिंदी क्या देती प्रजेंट में जोड़तोड़ में कहां मजा है जउन मजा है सेटलमेंट में ऐसे ही कविता लिखनी है आप भले समझें तुकबन्दी।। साहनी
 करता है मजदूर बिचारा..... मरता है मजदूर बिचारा..... स्थितियां मानक से हटकर संरक्षा मानक से कमतर वेतन महंगाई से कम हैं सुविधाएं घटतर  से घटतर सहता है मजदूर बिचारा ..... वह श्रम की खातिर लड़ता है वेतन की खातिर लड़ता है क्या मिलता है बस मुट्ठी भर वेतन अफसर का बढ़ता है लड़ता है मजदूर बिचारा..... ओवर टाइम बन्द हो गया ठेका प्रॉफिट बन्द हो गया बन्द हो गए बोनस कितने जाने क्या क्या बन्द हो गया रोता है मजदूर बिचारा..... निर्माणी बिकने ना पाए कल शायद अच्छे दिन आएं रोज़गार तो खत्म हो गए बच्चे शायद कुछ बन जाएं कहता है मजदूर बिचारा...... सुरेश साहनी कानपुर
 तुम यार बने रहना ऐयार न हो जाना। मिलते ही बदल कर तुम सरकार न हो जाना।। भूले से न हो ज़ाहिर, उल्फ़त की मेरी बातें दुनिया न कहीं पढ़ ले अखबार न हो जाना।। तुम मेरी मुहब्बत में बीमार न हो जाना।।
 कब कहा मुझको उज़्र सब से है। है शिक़ायत कोई तो रब से है।। खुशियां नफ़रत में ढूंढ़ने वाला आज महरूम हर तरब से है।। कुछ अदब कोई एहतराम नहीं खाक़ रिश्ता तेरा अदब से है।।  मैं अज़ल से मुरीद हूँ उसका क्या कहूँ इश्क़ है तो कब से है।। आदमी आदमी न हो पाया वो ख़ुदा भी ख़ुदा है जब से हैI। सुरेश साहनी, कानपुर
 तीरगी गा रही है राग नये। ख़ुद जलें या कि लें चिराग़ नये।। मौत की ज़िंदगी है विधवा सी ज़ीस्त बदले है नित सुहाग नये।। रोज़ हम ढूंढते हैं अपने को रोज़ मिलते हैं कुछ सुराग नये।। लाख उजले कफ़न में लिपटे हम ज़ीस्त  देती रहेगी दाग नये।। कूढ़मग़ज़ों से भ्रष्ट है दुनिया ले के आ दिल नये दिमाग नये।।
 ग़ज़ल कैसे कहें नाज़िल न् हो तो। लगाए दिल कहाँ जब दिल न् हो तो।। मेरे जलने का मतलब ही नहीं है अगर वो आपकी महफ़िल न् हो तो।। दिले नादान क्यों नादान समझे निगाहे नाज़ से बिस्मिल न् हो तो।। तो रुसवाई को ही हासिल समझना मुहब्बत में अगर हासिल न् हो तो।। मुसलसल   मुब्तिला हैं हम सफर में  मगर जाएं कहाँ मंज़िल न् हो तो।। साहनी

अयोध्या

 #थाईलैंड  की  राजधानी  को #अंगरेजी  में  बैंगकॉक ( Bangkok  )  कहते हैं  , क्योंकि  इसका #सरकारी  नाम  इतना  बड़ा  है   , की इसे  विश्व  का  सबसे  बडा  नाम   माना जाता है  , इसका   नाम  #संस्कृत  शब्दों   से मिल  कर  बना   है   , देवनागरी  लिपि   में  पूरा   नाम  इस प्रकार   है  , 👉"क्रुंग देवमहानगर अमररत्नकोसिन्द्र महिन्द्रायुध्या महातिलकभव नवरत्नरजधानी पुरीरम्य उत्तमराजनिवेशन महास्थान अमरविमान अवतारस्थित शक्रदत्तिय विष्णुकर्मप्रसिद्धि "👈 #थाई भाषा  में  इस पूरे  नाम  में  कुल  #163  अक्षरों   का  प्रयोग   किया  गया  है  , इस   नाम  की एक  और विशेषता  है  , इसे  #बोला नहीं  बल्कि #गाकर  कहा  जाता  है . कुछ  लोग आसानी  के...
 चाहने वाले हमें पीर समझ बैठे हैं। हमको उम्मीद की जागीर समझ बैठे हैं।। हमने सोचा था उन्हें प्यार का आलम्बन दें पर मेरा हाथ वो जंजीर समझ बैठे हैं।। उस हसीना-ए-तसव्वुर के कई हैं आशिक  लोग जिसको मेरी ताबीर समझ बैठे हैं।। अब कोई कैसे बताये कि हकीकत क्या है सब हमे राँझा उसे हीर समझ बैठे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 और कितना वो आजमाएगा। इश्क़ इक दिन तो रंग लाएगा।। रूठता है तो रूठ लेने दो तंग आकर वो  मान जाएगा।। उसके आंसू खुशी के होते हैं दर्द होगा  तो   मुस्कुराएगा ।। प्यार अपनो का लूटकर कैसे इतनी नफरत सम्हाल पायेगा।। ले मेरा दिल तुझे दिया मैंने कौन इतना तुझे मनाएगा।। सुरेश साहनी,कानपुर
 और होंगे जो ग़ज़ल लिखते हैं। हम तो इस दिल की नकल लिखते हैं।। हम तो जाने हैं कुटी है लेकिन वो मेरे दिल को महल लिखते हैं।। हम अँधेरे में भी हैं रोशन रुख क्यों मेरे रुख को कँवल लिखते हैं।।
 कविताये होती ही है इतनी अल्हड़ चंचल की देर होते ही विस्मृतियां उसे फुसला ले जायें।
 इक नई बात क्यों नहीं होगी। फिर शुरुवात क्यों नहीं होगी।। हमने माना वो रूठ बैठे हैं पर मुलाक़ात क्यों नहीं होगी।। चाँद डूबा था अपनी किस्मत का फिर हँसी रात क्यों नहीं होगी।। दिल में कुछ कुछ घुमड़ रहा है फिर आज बरसात क्यों नहीं होगी।।
 क्यों मुझको बदनाम कराना चाहे हो। नाहक़ इक इल्ज़ाम लगाना चाहे हो।। तुम तो दीवाने हो कोई बात नहीं मुझको भी करना दीवाना चाहे हो।। साहिल पर तन्हा तन्हा खुश तो हैं क्या मेरी भी नाव डुबाना चाहे हो।। तुमको तो रुसवाई का कुछ खौफ नहीं शाम सुबह बस छत पर लाना चाहे हो।। यार मुहब्बत ज़ुर्म अज़ल से है तो है काहे दुनिया से टकराना चाहे हो।। जिसमें ग़म हों आँसू हों तक़लीफें हों आख़िर क्यों ऐसा अफ़साना चाहे हो।। मान ही लेते हैं जब ज़िद पर आए हो चलो कहाँ मुझको ले जाना चाहे हो।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 कलम तलवार से कुछ अलहदा है। ये घर बाज़ार से कुछ अलहदा है।। तुम्हारे रंग   कुछ   बदले हुए हैं असर उस प्यार से कुछ अलहदा है।। नहीं है ये मेरी दुनिया ख़ुदारा बशर संसार से कुछ अलहदा है।। खिंचे रिश्तों में फिर कब टूटती है ये हर दीवार से कुछ अलहदा है।। तुम्हारी सोच में जंगल है डर क्या शरर अंगार से कुछ अलहदा है।।  हक़ीक़त क्या है ये भगवान जाने ख़बर अख़बार से कुछ अलहदा है।। ये क़ातिल कारकून-ए- सल्तनत है मगर सरकार से कुछ अलहदा है।। कलम रख दें कि अपने होठ सी लें ये डर हरबार से कुछ अलहदा है।।
 अब कविता लिखने में झिझकता हूँ जाने कैसे मेरी बेरंग कविताओं में लोग रंग ढूंढ़ लेते हैं। और वे रंग भी अलग अलग निकलते हैं। भगवा,नीला,लाल हरा और भी न जाने कैसे कैसे फिर रंग से बना देते हैं न जाने क्या क्या जैसे- बिरादरी, पार्टी,फिरका ,मजहब  या फिर कोई देश ऐसे में बस एक विकल्प बचता है  सादा छोड़ देते हैं कागज़ शायद कबीर भी रहे होंगे मेरी परिस्थितियों में, तभी तो उन्होंने कहा है- मसि कागद छुयो नहीं......... एक पुरानी कविता
 सूखते रिश्तों को पानी दे गया। ख़्वाब जब वो आसमानी दे गया।। वक़्त के सहरा में डूबे दर्द को कौन दरिया की रवानी दे गया।। हुस्न आशिक़ को कहाँ देता है कुछ इश्क़ दुनिया को जवानी दे गया।। क्या पता था छोड़ कर जायेगा फिर क्या इसी ख़ातिर निशानी दे गया।। हमसे खुशियों का मुहल्ला छीनकर दर्दोगम की राजधानी दे गया।। त्रासदी है हर कहानी सोचकर वो अधूरी सी कहानी दे गया।।  कौन सी उम्मीद पर इस उम्र में आशिकी को खाद पानी दे गया।। और क्या देता वो दीवाना मेरा ज़िन्दगी को ज़िंदगानी दे गया।। सुरेश साहनी, कानपुर
 माटी के घर मड़ई, घोटठा घारी का। दौर गया सब बाग बगइचा बारी का।। आज रोशनी दूर कहीं से आती है दौर गया दीया, ढिबरी अगियारी का।।
 ये खुशी बेहिसाब है गोया। उससे मिलना सबाब है गोया।। उस तबस्सुम का क्या कहें वल्लाह मेरे ख़त का जवाब है गोया।। उसकी आंखें हैं दो कंवल जैसे और चेहरा गुलाब है गोया।। देख कर झुक गयी नज़र उसकी ये भी कोई नक़ाब है गोया।। पल में उड़ कर के आसमां छूना मन का पंछी उक़ाब है गोया।। होंठ गोया शराब के प्याले हुस्न उसका शराब है गोया।। किस तसल्ली से जान लेता है यार मेरा कसाब है गोया।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 राब्ता दुनिया से बस इतना रहा। मैं किरायेदार था आया गया।।
 तुम्हें लगता है पर ऐसा नहीं है। तुम्हारे बिन तो है तनहा नहीं है।। तुम्हारे ग़म से शादोबाद हूँ मैं तुम्हें क्या लग रहा है क्या नहीं है।। दुआओं में असर अब भी है लेकिन दुआओं में तेरा चेहरा नहीं है।।
 इतना गिरकर मैं लिख नहीं सकता।। सच से हटकर मैं लिख नहीं सकता।। यूँ भी कड़वी ज़ुबान है अपनी नीम शक्कर मै लिख नहीं सकता।। और कितना ज़हर पिलाओगे ख़ुद को शंकर मैं लिख नहीं सकता।। आप तलवार से डराते हो और डर कर मैं लिख नहीं सकता।। तुम बहुत ही हसीन हो शायद इससे बेहतर मैं लिख नहीं सकता।। साहनी
 मरते जाते जज़्बातों में कुछ लोग अभी भी जिंदा हैं। इंसानी रिश्तों नातों में कुछ लोग अभी भी जिंदा हैं।। सरकारें दुश्मन होती हैं  वैसे भी ज़िंदा लोगो की   फिरक्यों सरकारी खातों में कुछ लोग अभी भी जिंदा हैं।। देखो इन ज़िंदा लाशों को इनमें अब भी कुछ हरकत है मुर्दा लोगों की बातों में कुछ लोग अभी भी जिंदा हैं।। बेलौस चमक ले आते हैं सूनी आंखों के कोटर में इन बुझते एहसासातों में कुछ लोग अभी भी जिंदा हैं।। आखिर कैसे झोंपड़ियों में महलों से ज्यादा जीवट है आख़िर कैसे बरसातों में कुछ लोग अभी भी जिंदा हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इधर कुछ दिन से हम झगड़े नहीं हैं उधर शायद मुहब्बत कम हुई है।।SS
 क्या सुख दुख में तुम यकसा रह पाओगे। महफ़िल की तन्हाई में जब घुटते हो वीरानों में तुम कितना रह पाओगे।। मरने से पहले ही मरे मरे क्यों हो क्या जिंदानों में ज़िंदा रह पाओगे।। मैं क़तरा था फ़ानी था अब दरिया हूँ तुम दरिया हो क्या क़तरा रह पाओगे।।साहनी
 हादसा दर्दनाक हो  तब ना। मौत भी इक मज़ाक हो तब ना।। लोग हमदर्दियाँ जताये क्यों वोट से इत्तेफ़ाक़ हो तब ना।। कैसे क़िरदार पर सवाल करें अपना दामन भी पाक हो तब ना।। हम सुख़नवर कहाँ से हो जाएं ख़्वाब उल्फ़त का खाक़ हो तब ना।। कैसे मानेगा मुझको दीवाना ये गरेबान चाक हो तब ना।। तंज़ करने से दूर भागोगे ये मज़ाकन सुज़ाक़ हो तब ना।। तुम सिकन्दर तो हो ही जाओगे पहले दुनिया मे धाक हो तब ना।। किस तरह खाएं भूख से ज़्यादा इतनी ज़्यादा ख़ुराक हो तब ना।। रोब ग़ालिब हो वज़्म में अपना हम में मीरो- फ़िराक़ हो तब ना।। सुरेश साहनी,कानपुर
 कट रही है ज़िन्दगी अब सिर्फ़ यादों के सहारे। मर ही जाते जो न मिलते ज़िन्दगी में ग़म तुम्हारे।। यूँ तो सूरज भी मुझे पहचानता होगा यक़ीनन पर मुझे पहचानते हैं रात तन्हा चाँद तारे।।
 नगरी में साहित्य के गुट हो गए अनेक। क्यों न रचनाधर्मिता देती घुटने टेक।। भेदभाव पूरित मिला गुरुओं का व्यवहार। नव अंकुर कुंठित हुए नई कलम लाचार।।
 उन्हें तकलीफ़ है मेरी कहन से। वे दरबारी हैं तन से और मन से।। वे हुक्कामों को जीजा मानते हैं उन्हें कब प्यार है अपनी बहन से।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आसमान में पत्थर कौन उछालेगा। फिर सुराख कर के भी वो क्या पा लेगा।। तुमने क्या हम सबको पागल समझा है पागल भी अब इन बातों को टालेगा।। बस पड़ोस का बच्चा भगत सिंह होवे इनका बच्चा राज पाट सम्हालेगा।।
 जो उपवन को लूट रहे हैं वे तो महिमामंडित हैं कुछ राजा कुछः नगर श्रेष्ठ हैं मैं फकीर सा खाली हूँ मेरे हाथों क्यारी क्यारी खिलना कोई दोष नहीं मेरा दोष महज इतना है में उपवन का माली हूँ।
 वो हमें जब भी मुस्कुरा के  मिले  । अनगिनत फूल खिलखिला के मिले।। उनपे कैसे यकीन कर ले हम जो हमें खूब आज़मा के  मिले।। हमको ये कत्तई पसंद नहीं कोई हमसे नज़र चुरा के मिले।। वो भी मिन्नत पसंद  थे कितने ख़ूब नखरे दिखा दिखा के मिले।। हाथ हम थाम लेंगे दावा है सिर्फ वो दो कदम बढ़ा के मिले।। प्यार में हमने जान दे दी है वो भी मक़तल में सर कटा के मिले।। हम भी कितना झुके कोई हद है उसको मिलना है ख़ुद से आ के मिले।। सुरेश साहनी ,कानपुर।।
 पाँव नहीं हैं पर की बातें करते हों। काहे बहकी बहकी बातें करते हो।। क्यों कर तुमसे दुनिया वाले रूठे हैं चुप रहकर तुम किसकी बातें करते हो।। कौन यहाँ अब किसकी पीड़ा सुनता है किससे दुनिया भर की बातें करते हो।। तुमको जब देखा है तन्हा पाया है किससे चार पहर की बातें करते हो।। सुनने वाले सुनकर पीछे हँसते हैं नाहक़ बाहर घर की बातें करते हो।। मातें खायीं हैं उसका भी ज़िक्र करो फर्जी सबकी शह की बातें करते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 दौर इक कामयाब ले आते। तुम अगर इन्कलाब ले आते।। हम से नाहक सवाल पूछे हो वक़्त से हर जवाब ले आते।। हमकदम खार ही रहे हरदम काश ये फ़न गुलाब ले आते।। काश नींदें न गुम हुई होतीं हम मुकम्मल से ख़्वाब ले आते।। साथ आये हैं वो रक़ीबों के कुछ तो आंखों में आब ले आते।। लाख तुर्बत पे बिजलियां गिरती तुम उन्हें बेनक़ाब ले आते।। तीरगी साथ देगी महशर तक किसलिए आफ़ताब ले आते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी  ज़िन्दगी के बिन जीते । मौत तुझको भी चार दिन जीते।। वो तो आसान हो गयी वरना मौत होती भले कठिन जीते।। जीस्त मुझसे सवाल करती है मौत के साथ कितने छिन जीते।। मौत ने कर्ज तो नहीं लादा जीस्त होती जो मोहसिन जीते। जिंदगानी ने कर्ज़ लाद दिए वक़्त करता नही उरिन जीते।। एक चादर मिली थी झीनी सी ये जो होती नहीं गझिन जीते।। इश्क़ चाहे है रोज हार मिले हुस्न बेशक़ ही दिन ब दिन जीते।। सुरेश साहनी कानपुर 06/09/22
 मुझमें सदा जगी रहती है उस कवि की अभिलाषा। जिसे पसंद नहीं आती है राजनीति की भाषा। करता हूँ सर्वस्व निछावर कवि की सारंगी पर कम भाता है  राजनीति का चारण ढोल तमाशा।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 अब वो आग नहीं लगती है। महँगाई  बढ़ती  रहती है।। कीमत कितनी ही बढ़ जाये अब जनता सोयी रहती है।। जाति धर्म नफरत की चर्चा खबरों में पसरी रहती है ।। झूठ और पाखण्ड आश्रय टीआरपी बढ़ी रहती है।। अस्पताल में दवा की जगह ख़ाली मौत बंटा करती है।। निष्ठा सेवा व्रत वालों को अपयश और सज़ा मिलती है।। सही लोग अब चुप रहते हैं ये भी एक बड़ी गलती है।। राम सम्हालो दुनिया अपनी त्राहि त्राहि मचती रहती  है।। सुरेशसाहनी
 राजनीति होखे दS भैया। अइसे काम चले दS भैया।। जिन रोवS जनता के ख़ातिर ई कुलि होत रहे दS भैया।। बच्चे मरिहैं फिनु होइ जइहैं हमके राज करे दS भैया।। महँगाई से का दिक्कत हौ उतरे अउर चढ़े दS भैया।। जनता बहुत मोटाय गईल बा एकर रस निकरे दS भैया।। सच बोलब ते बोट न देबS हमके झूठ गढ़े दS भैया।। सत्ता मद के जोड़ न होला जेतना चढ़ै चढ़े दS भैया।।
 जब मेरे पिताजी रोज़गार की तलाश में कानपुर आये।उस समय का पूर्वांचल अथवा गोरखपुर मण्डल आज से बेहतर तो नहीं था किंतु सांस्कारिक अवश्य था। पिता जी के माता पिता अल्पायु में उन्हें त्याग गये थे।पुराने लोग जैसे कि हमारे चचेरे बाबा आदि लोग गर्व से बताते थे, °बाबू! बड़का भैया एक्के साँस में भरल चिलम खींच जात रहलें।"  मुझे ऐसा लगता है यही उनकी असमय मृत्यु का कारण भी रहा होगा। खैर बाद में पिताजी को प्रारब्ध वश जेपी जी और सतासी नरेश स्कूल के प्राचार्य पांडेय जी जैसे संरक्षक भी मिले। यह तब की बातें हैं जिस समय का समाजवाद लैया चना पर चलता था।आज तो समाजवादी नेता बोलेरो पर ही पैदा होते हैं। गांव के बेचन साहू जिन्हें हम बड़का दादा बोलते थे उनकी पत्नी यानि बड़की माई ने एक बार बताया था कि बाबू तुहार बबुआजी यानि पिता जी एक बार खाये बैठल रहलें, ओही टाइम तुहार बड़की माई लोढ़ा चला के मार दिहली कि कमाये धमाये के नईखे आ खाये के अधरी के चाही। ए बाबू!तुहार बाबू जी ओही बेरा  देश (गाँव) छोड़ि दिहलन।"  मुझे लगता है यह भी ईश्वर की प्रेरणा रही होगी वरना आज हम भी मछरी मारते रहते,या मुम्बई आदि शहरों में भट...
 बयाँ करते तो किस्सा और होता। यक़ीनन कुछ तमाशा और होता।। ज़माने भर ने बांटा दर्द मेरा मगर उनका दिलासा और होता।। कयामत ढा रहे हैं वो अकेले गजब होता जो उन सा और होता।। हम आधे मन से उठ आये अगरचे मनाते वो ज़रा सा और होता।। चलो रिश्तों में कुछ तल्ख़ी तो आई बिलाहक कुछ कुहासा और होता।। तेरा शीशा मेरी ग़ैरत से कम है नहीं तो मैं भी प्यासा  और होता।। ज़नाज़े में मेरे बस वो नहीं हैं नहीं तो ढोल ताशा और होता।। तुम आते तो मेरी तुर्बत पे बेशक़ ख़ुशी में एक जलसा और होता।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम अचानक भी चीख उठते हो तुम भरे पेट हो तो वाज़िब है तुम किसी पर भी चीख सकते हो पर किसी दिन तुम्हारी ये आदत तुम को भारी कहीं न पड़ जाए और इकदिन तुम्हारी हरकत पर कोई तुम पर पलट के चीख पड़े एक दिन कार से भले मानुष आ के ठहरे थे सिंह ढाबे पर एक पागल कोई भिखारिन सी उसको कुछ रोटियां खिलाई थीं दूर उस पिकेट पर पुलिस वाले  हँस पड़े थे ठठा के जाने क्यों कुछ सहम सी गयी थी बेचारी रात कुछ चीखने की आवाजें वैसे दब सी गयी थी गों गों में जैसे अक्सर गरीब आवाजें उठते उठते दबा दी जाती हैं फिर पगलिया नहीं दिखी सबको चीखना भी बहुत  ज़रूरी है बहरे कानों को कुछ पता तो चले वरना कह देंगे कुछ हुआ ही नहीं और यूँ भी शरीफ लोगो को  कुछ दिखाई भी तो नहीं देता सुन के शायद ज़मीर  जाग उठे--- सुरेश साहनी, कानपुर
 यह युग आपाधापी का है सारे  कितनी  जल्दी में हैं।। जन्मने और मर जाने में जी भर कर भी जी पाने में अपनों की खातिर वक्त नहीं कुछ जाने कुछ अनजाने में अपनी ख़ातिर भी वक्त नहीं सारे कितनी जल्दी में हैं।।.... यह युग आपाधापी का है.... रिश्तों में गज भर की दूरी मिलने की मीलों मजबूरी बन गए अगर तो निभने की होती है बस खानापूरी अपने बेगाने सब के सब जाने कैसी जल्दी में हैं।।.... यह युग आपाधापी का है...... झुक कर प्रणाम से नमस्कार युग बदला बदले संस्कार अब हलो नमस्ते दूर बात बस हाय हाय का है प्रचार संबंधों को श्मशान तलक ले जाने की जल्दी में हैं।।..... यह युग आपाधापी का है..... सुरेशसाहनी,कानपुर
 उसने अवसर दे मारा। हमने भी सर दे मारा।। दोस्त हमारे पीछे थे किसने खंज़र दे मारा।। फूल दिए थे कल उसको जिसने पत्थर दे मारा।। कैसे कह दें दुश्मन है जिसने दिल पर दे मारा।। बदनामी ने शोहरत को मेरे मुंह पर दे मारा।। इक कबीर ने नफ़रत पर ढाई अक्षर दे मारा।। प्रश्न उसी को घेरेंगे जिसने उत्तर दे मारा।।  लानत है दरवेशी पर मौत ने जब घर दे मारा।। सुरेश साहनी,कानपुर
 द्रोण तुम कब आ रहे हो एक नया अवतार लेकर   मात्र अंगूठा लिया था तुमने अपनी दक्षिणा में आज के गुरु  प्राण लेना चाहते हैं।-सुरेश साहनी
 डालना है अभी पड़ाव कहाँ। घर कहाँ है हमारा गांव कहाँ।। गर वो दुश्मन है तो सम्हल के रहो क्या पता कौन देदे दांव कहाँ।। हम तुम्हे दिल क्या जान भी देदें तुम ही देते हो हमको भाव कहाँ।। मैं तुम्हारी वफ़ा का आशिक हूँ अब गलत है मेरा चुनाव कहाँ।। तुम मुझे भूल जाओ हर्ज नहीं मैं तुम्हे भूलकर के जाऊँ कहाँ।। एक दूजे में हम समाहित है हममें तुममें कोई दुराव कहाँ।। ज़ेरो-बम ज़िन्दगी के हिस्से हैं एक जैसा रहा बहाव कहाँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अजीब बात है मैं दायरे से बाहर क्यों नहीं आता जबकि आज वक़्त है चुप नहीं बैठने का जब उलझन बढ़ती है मैं कमरे से बाहर आ जाता हूँ टहलता हूँ घर से ठीक बाहर सड़क पर इधर से उधर और फिर कमरे में लौट आता हूँ कमरे में प्रकाश है बिजली रहने तक सोशल मीडिया है नेट पैक रहने तक और भी बहुत कुछ है जैसे कुछ किताबें और दवाएं भी और एक बाउंडेड फेसबुक एकाउंट भी जिसमें मैं नहीं पोस्ट करता वह सब सब यानी ऐसा कुछ  भी नहीं जिससे मेरा एकाउंट ब्लॉक हो जाय या मेरी ट्रोलिंग बढ़ जाये और मालूम है मैं अभ्यस्त हो रहा हूँ  सरकार को सहन करने का अब मैं पढ़ता हूँ आर्थिक मंदी देश के विकास में सहायक है असमान आर्थिक विकास से रोजगार बढ़ते हैं आखिर क्रांति ऐसे ही होगी ना? सुरेश साहनी ,कानपुर
 और फिर तय हो गया मेरा यगाना सा सफ़र। अनगिनत अनजान राहों पर ये जाना सा सफर।।  भीड़ रिश्तों की लिए  मैं उम्र भर तन्हा फिरा जैसे इक बच्चे का हो मेले में खो जाना सफर।। दूर तक मन्ज़िल का कोई  भी नहीं नामो निशान दिल मे डर,उम्मीद का भी जैसे मर जाना सफ़र।।
 गोद तेरी घर आंगन कहाँ तलाशूँ मैं। माँ फिर अपना बचपन कहाँ तलाशूँ मैं।। जो अपनी माटी से बाँधे रखता है वह भावों का बंधन कहाँ तलाशूँ मैं।। तुमसे तन से ज्यादा मन का नाता है अब ऐसा आकर्षण कहाँ तलाशूँ मैं।।
 चुप रहो एक पूरी ग़ज़ल बन सको प्यार का इक मुकम्मल महल बन सको ताज तैयार होने तलक चुप रहो।। ख़्वाब तामीर होने तलक चुप रहो पूर्ण तस्वीर होने तलक चुप रहो घर के संसार होने तलक चुप रहो।। राज तकरार में हैं छुपे प्यार के प्यार बढ़ता नहीं है बिना रार के रार मनुहार होने तलक चुप रहो।। आप इनकार करते हो जब प्यार से जीत जाते हैं हम प्रेम में  हार  से मन से इक़रार होने तलक चुप रहो।।
 वक्त हर घाव को भर देता है। चाक दामन रफू कर देता है।। ज़ुल्म की हस्ती मिटा दे ऐसा सबकी आहों में असर देता है।। खत्म होती हुयी उम्मीदों को वो नयी राहगुज़र देता है।। दिन ढले रात वही करता है रात से वो ही  सहर देता है।। अहले दुनिया की भलाई होगी वो सज़ाएं भी अगर देता है ।। ठौर देता है चरिंदों के लिए तो परिंदों को शजर देता है।। सब का मालिक है ख़ुदा बन्द करीम सब को जीने के हुनर देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 लिखने के एवज में ########## मैं लगभग हर रोज चोरी करता हूँ।नहीं चोरी कहना ठीक नहीं होगा।मैं अपने आराम के समय,नींद के समय और बच्चों को देने वाले समय से समय चुराता नहीं छीनता हूँ।यह चोरी से ऊपर का लेवल है। लेकिन आज का यह लेख चोरी या डकैती से सम्बंधित नहीं है।मामला लिखने या न लिखने का भी नहीं है।हाँ यह सार्थक और निरर्थक लेखन का विषय जरूर है। इस लिखने के बीच में बच्चा साँप सीढ़ी खेलने के लिए कहता है।श्रीमती जी अपनी मम्मी के घर चलने को कह रही हैं।बिटिया कुछ किताबें खरीदने की बात कह रही है। बड़े भाई संगीत की बैठक में बुला रहे थे।एक मित्र ईद मिलन के लिए कुछ मित्रों के घर चलने को कह रहे हैं। पड़ोस में सत्संग का कार्यक्रम भी है।अर्थात लिखने की साधना इतने यंत्रणाओं से गुज़र कर भी पूरी नहीं हो पाती। चार से पांच घण्टों में इतना ही लिख पाया हूँ ,जितना आप पढ़ रहे हैं।  और लिख देना ही पर्याप्त नहीं है।लिख देने के बाद पोस्ट करते ही आप पर आक्रमण होने शुरू हो जाते हैं।एक बार आपके चाहने वाले लाइक कमेन्ट करें या न करें,विरोध करने वाले तलवार ज़रूर भाँज जाते हैं। आप लिखिए अनूप शुक्ल बहुत अच्छे लेखक हैं।श...
 ऐसी भी   लाचारी क्या! कमज़रफों से यारी क्या।। दिल को कैसे जीतेगा जीती बाज़ी हारी क्या।। जान नगद दी जाती है इसमें कर्ज़ उधारी क्या।। क्यों मुरझाया फिरता है पाली है बीमारी क्या।। नीयत साफ नहीं है तो निजी और सरकारी क्या।। हुयी घोषणा बहुत मगर हुयी योजना जारी क्या।। सेठों की सरकारें हैं तुम भी हो व्यापारी क्या।। शासन भाषण देता है उसकी जिम्मेदारी क्या।।
 प्यार करना भी दर्द देता है। छोड़ देना भी दर्द देता है।। बोल देना भी दर्द देता है कुछ न कहना भी दर्द देता है।। दिल की बातों पे शायरी की तरह वाह कहना भी दर्द देता है।। मेरी अपनी कहानियां सुनकर उसका हंसना भी दर्द देता है।। गैर देते हैं दर्द लाज़िम है कोई अपना भी दर्द देता है।। एक भूली हुयी कहानी का याद आना भी दर्द देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 लाख सीना ओ जिगर वाले हो डर जाओगे। मेरे हालात से गुजरोगे    तो मर जाओगे।। झूठ की जिंदगी जीने की तुम्हे आदत है सामना सच का करोगे तो मुकर जाओगे।। तुमको इस दिल में बिठाया था बड़ी भूल हुयी क्या खबर थी मेरी नजरों से भी गिर जाओगे।। प्यार एक ऐसा ठिकाना है जहाँ से उठकर हर जगह धोखे ही धोखे हैं जिधर जाओगे।। नफरती तुण्द हवाओं में हो बिखरे बिखरे प्यार के साये में आ जाओ संवर जाओगे।। सुरेश साहनी
 तेज बहती हों हवाएँ चल रही हों आँधियाँ। जब भी गहराये अँधेरा हम जलाते हैं दिया।। जब कभी खुशियों का सूरज भी निकलना छोड़ देगा। चंद्रमा भी राहु के भय से चमकना छोड़ देगा बन के जुगनू हम करेंगे जंग की तैयारियां।।
 लोग कैसे लिख लेते हैं रोज एक नयी कविता? क्या वे कमाने नहीं जाते? कामगार  किसान मजदूर  ये लिख सकते हैं? नहीं!पर मैं इनके किये कार्यों में कविता देखता हूँ पढता हूँ समझता हूँ!!!!!
 व्यर्थ तुझे सत्ता दे बैठे हम जनगण बकलोल महंगा हुआ आज पेट्रोल महंगाई की मार झेलती जनता हो गयी ढोल महंगा हुआ आज पेट्रोल
 जब भी तुम ख़्वाबों में आये ख़्वाब लंबे हो गए ज़िन्दगी में आ गये तो सौ बरस जीएंगे हम।।SS
 रक़्स देखा है बरसती हुई बूंदों का कभी रक़्स कब पैर की मोहताज हुआ करती हैं।। साहनी
 जब वो अपनी जात बिरादर देखेगा। कैसे सबको एक बराबर देखेगा।।  सारी दुनिया ही भगवान भरोसे है वो बेचारा कितनों के घर देखेगा।। क्या जुड़ पायेगा वो जनता के दुख से  जब उठती आवाज़ों में डर देखेगा।। तुम सब के हित देखेगा यह मत सोचो वो सत्ता पाने के अवसर देखेगा।। वह जो अपना घर तक देख नहीं पाया क्या ज़िम्मेदारी से दफ़्तर देखेगा।। सुरेश साहनी,कानपुर
 दूर उफ़क पर कौन नज़ारों से मिलता है क्या मालुम। चुपके चुपके चाँद सितारों से मिलता है क्या मालुम।। वह भी अक्सर बहकी बहकी  बातें करने लगता है शायद कुछ दिल के बीमारों से मिलता है क्या मालुम।। इधर उधर की बातों में हम काहे को मशगूल रहे बेमतलब में कौन हज़ारों से मिलता है क्या मालुम।।
 मेरे ज़ख्मों को ज़ख़्म रहने दे। ग़म के एहसास गर्म रहने दे।। दिल पे दस्तक दे ठोकरें मत दे एक बस्ती तो नर्म रहने दे।।
 आप दिल के करीब कब आये । यूँ तो ग़ैरो-रकीब सब आये।। ज़ीस्त क्यों कर बुझी बुझी बीते आ भी जाओ कि कुछ तरब आये।। है ये दस्तूर भी ज़रूरत भी क्या पता कल न ये तलब आये।।
 बेवजह क्या वक़्त की तस्वीर लेकर बैठना। भर चुके घावों की दिल मे पीर लेकर बैठना।। बैठ जाते आप भी झूठी तसल्ली के लिए आपको था कौन सी जागीर लेकर बैठना।। इश्क़ है या फिर दिखावा ताज जैसी शक्ल में जिस्मे-फ़ानी पर कोई तामीर लेकर बैठना दर्द के सहरा में चश्मे तो उबलने से रहे याद आता है तुम्हारा नीर लेकर बैठना।। हम कोई तदबीर क्या करते  मुक़म्मल वस्ल की खल गया बस आपका तक़दीर लेकर बैठना।। टूटती साँसों को लेकर  इश्क़ भटका दरबदर हुस्न का अच्छा न था अक्सीर लेकर बैठना।। इश्क़ का मरहम अज़ल से है कयामत तक मुफीद हुस्न क्या है चार दिन तासीर लेकर बैठना।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुम भी हो   दीवाने कितने। लिख डाले अफसाने कितने।। महफ़िल में तो परदा रखते घायल हैं परवाने कितने।। दिल की बात समझते कैसे हम भी थे अनजाने कितने।। तुमसे ही आबाद हुए हैं वरना थे वीराने कितने।। तेरी आँखों के जादू से बन्द हुए मैख़ाने कितने।। शेख नये हैं उनसे पहले आये थे समझाने कितने।। इक दिल ना देने की ज़िद में तुमने किये बहाने कितने।। तुम में कितना अपनापन था तुम हो अब बेगाने कितने।। सुरेश साहनी,कानपुर
 फसले- बहार भी नहीं बादे-सबा नहीं। शायद   मेरे  नसीब में   ताज़ा हवा नहीं।। बरसों से बंद है मेरी तक़दीर की किताब जैसे किसी ने कुछ भी लिखा या पढ़ा नहीं।। पढ़ती थी मेरी भूख मेरी प्यास किस तरह कहते थे सब कि माँ ने कहीं भी पढ़ा नहीं।। इक बात तेरी दिल में मेरे गूंजती रही मैंने सुना नहीं कभी तुमने कहा नहीं ।। तुम क्या गये कि हम भी जहाँ से निकल लिए तुम बेवफ़ा थे हम भी कोई बावफ़ा नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हुई कोर्ट अवमानना गए समय की बात। एक रुपये में कीजिये मन भर मन की  बात।।