तुम्हारा यूँ मचलना ठीक है क्या।

जवानी का फिसलना ठीक है क्या।।

झिझकती उन गुलों की डालियों में

नज़ाक़त से टहलना ठीक है क्या।।

निगाहें हैं तुम्हारी क़ातिलाना

अयां होकर निकलना ठीक है  क्या।। 

तेरी आँखों से छलके है समंदर

मेरे शीशे में ढलना ठीक है क्या।।

चलो माना नदी सी चंचला हो

किनारों से उबलना ठीक है क्या।।

अगर मैं भी बहकता हूँ तो रोको

मेरा गिर कर सम्हलना ठीक है क्या।।

तो आओ इश्क़ का इज़हार कर लो

मुहूरत का बदलना ठीक है क्या।।

रक़ाबत में इज़ाफ़ा हो गया है

हमारा साथ चलना ठीक है क्या।।

तेरी उम्मीद कैसे छोड़ दें हम

उम्मीदों का कुचलना ठीक है क्या।।

चले जाते हो यूँ दामन झटककर

हमारा हाथ मलना ठीक है क्या।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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