मुझे तीन उपाधियां बेमानी लगती हैं।मजदूर,कार्यकर्ता और कवि।दुर्भाग्य से ये तीनों मेरे साथ जुड़ी हैं।इन तीनों को मात देने लायक एक और उपाधि है-बेचारा भला आदमी।इस पर तो परसाई जी ने निबन्ध ही लिख डाला है। इसमें स्वतः तीन विशेषताओं का बोध हो जाता है। एक बेचारा भला आदमी गधे से भी निरीह प्राणी है।कम से कम गधा दुलत्ती चलाकर विरोध तो प्रकट कर लेता है।अब आप एक कवि ,वह भी हिंदी की हैसियत का अंदाजा तो लगा ही सकते हैं।

अभी छः माह पहले एक सज्जन ने अनवरत कार्यक्रमों में बुलाया।दो में मैं गया भी। वे सज्जन सम्मान तो करते थे।किन्तु हमे लगा कि वे हमें इस्तेमाल कर रहे थे।तीसरे कार्यक्रम में उन्होंने फिर बुलाया।किन्तु मैंने विनम्रता से उन्हें मना कर दिया।वे हमसे चैरिटी के लिए आग्रह करने लगे।मैंने आयोजको से जानकारी ली तो पता चला कि वे एक अच्छी खासी रकम लेते थे।माइक टेंट, कुर्सियां नाश्ता पानी सब का पैसा मिलता था/पेमेंट किया जाता था।सिर्फ कलाकार और कवि से चैरिटी चाहते थे।यही स्थिति कमोवेश हर जगह है।

  खैर ऐसा मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि हिंदी कवियों की रही सही बेइज़्ज़ती बिगाड़ने का सराहनीय प्रयास आज श्री अनूप शुक्ल जी ने किया है।इसके लिए वे धन्यवाद के प्रत्याशी हो सकते हैं।टिकट तो आलाकमान ही देते हैं।

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