साफदामन हैं माहताब कई।
इश्क़ वाले भी हैं नवाब कई।।
हम फ़कीरों के दर नहीं बेशक़
घर ख़ुदा के भी हैं ख़राब कई।।
आपने मुस्कुरा दिया होगा
खिल गए हैं यहाँ गुलाब कई।।
इक तुम्हीं लाजवाब हो जानम
वरना हर शय के हैं जवाब कई।।
हम तुम्हें पाके मुतमईन रहे
लोग करते हैं इंतेख़ाब कई।।
इक दफा वस्ल तो मुकम्मल हो
तुमसे लेने भी हैं हिसाब कई।।
तुम जो आओगे तीरगी में भी
झिलमिलाएंगे आफताब कई।।
सुरेश साहनी, कानपुर
(प्रेम चतुर्दशी की रचनाएं)
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