ख़त जो मैंने सम्हाल रक्खे हैं।
मेरे माज़ी के हाल रक्खे हैं।।
यूँ तो उनके जवाब थे लेकिन
बन के जैसे सवाल रक्खे हैं।।
एक एक ख़त को सौ दफा पढना
ख़त नही ख़ुद कमाल रक्खें हैं।।
ख़त नहीं हैं वो कस्र-ए-दिल में
दीप यादों के बाल रक्खे हैं।।
उनके सोलह बरस से छब्बीस तक
हमने तह तह के साल रक्खे हैं।।
दिन वो फिर लौट कर न आएंगे
हमने जिनके मिसाल रक्खे हैं।।
मेरी नज़्में भी हैं मेरी ख़ातिर
खूब जाने- बवाल रक्खे हैं।।
इश्क़,दुनिया के ग़म तेरी यादें
दिल ने सब रोग पाल रक्खे हैं।।
उनको अब भी मज़ा नहीं आया
यां कलेजा निकाल रक्खे हैं।।
वो कहाँ तक उलाहने देगा
पास हम भी मलाल रक्खे हैं।।
कितना बेरंग है मेरा फागुन
जबकि रंगों -गुलाल रक्खे हैं।।
देख जाओ ये शबनमी मौसम
आज भी तर रुमाल रक्खे हैं।।
सुरेश साहनी ,कानपुर
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