जिस्म का हर खम निकलना चाहता है।

आज अपना दम निकलना चाहता है।।


अब न टालो इस रुते-रंगीन को

हाथ से मौसम निकलना चाहता है।।


रात अपनी रौ में है पर क्या करे 

चाँद भी मद्धम निकलना चाहता है।।


वो पशेमाँ  है तुम्हारे हुस्न से

चाँद अब कुछ कम निकलना चाहता है।।


ज़ुल्म उसके हद से ज्यादा हैं कि अब

दर्द से मरहम निकलना चाहता है।।


है वही  गंगोत्री से सिंधु  तक 

प्राण पर संगम निकलना चाहता है।।


क्या नई दुनिया बसाएगा कोई

किस तरफ आदम निकलना चाहता है।।


सुरेश साहनी ,कानपुर

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