जिसको कहते हैं ग़ज़लगोई है।
मुद्दतों छुप के कलम रोई है।।
ये मुहब्बत है किसानी जिसमें
मैंने अश्कों की फसल बोई है।।
मैं तो बैठा हूँ लुटाकर दुनिया
अपनी हस्ती ही नहीं खोई है।।
मैंने तुर्बत में गिने हैं तारे
ज़ीस्त मरकर भी कहाँ सोई हैं।।
लाश तक अपनी उठायी मैने
ज़िन्दगी किसने मेरी ढोई है।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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