ख़्वाब इतना सज़ा नहीं पाए।

दिल की दुनिया बसा नहीं पाए।।

ग़म की दौलत तो ख़ूब है लेकिन

और कुछ भी कमा नहीं पाए।।

दर्दे-दिल तो दबा लिया हमने

अश्क फिर भी छिपा नहीं पाए।।

उसने पूछा था आप कैसे हैं

हाल हम ही बता नहीं पाए।।

हाथ मलकर कहा सितमगर ने

इसको जी भर सता नहीं पाए।।

चार कंधों का कर्ज है हम पर

हम जो खुद को उठा नहीं पाए।।

अपने तकिए पे आके खुश हैं हम

जीते जी घर बना नहीं पाए।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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