एक तरफ मदमाते लोग।

एक तरफ पछताते लोग।।


आख़िर किस मिट्टी के हैं

हक़ की बात उठाते लोग।।


खाते  और  अघाते लोग।

मर मर गए कमाते लोग।।


क्या बाहर से आये हैं

लाठी गोली खाते लोग।।


राजनीति में हावी हैं

देश बेच कर खाते लोग।।


क्या दिल्ली जा पाएंगे

ये सहमे सकुचाते लोग।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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