मेरे ख़्याल में आया यदि माँ गंगा मुझसे अपनी पीड़ा कैसे व्यक्त करती। कैसे कहती।
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दौड़ी भागी गिरते पड़ते आती हूँ।
बाधाओं से लड़ते लड़ते आती हूँ।।
इतनी मैली कैसे हूँ कुछ सोचा है
तुम जैसों के कलिमल धोते आती हूँ।।
बीच सफर में साँसे टूटा करती है
हिम्मत करते सांस सँजोते आती हूँ।।
पर्वत से सागर की लम्बी दूरी है
शिव से अधिक हलाहल पीते आती हूँ।।
जबकि सागर में मिलकर खो जाना है
जाने क्यों पहचान बचाते आती हूँ।।
Suresh sahani
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