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Showing posts from July, 2022
 बला से नाम वाला हो गया हूँ। मगर कितना अकेला हो गया हूँ।। तकल्लुफ एक हद तक ही भली है इसी से तो अलहिया हो गया हूँ।। तुम्हे ही आज मैं लगता हूँ पागल तुम्हारा ही दीवाना हो गया हूँ।। सुख़न की महफ़िलें फिर से सजेंगी अदब का मैं इदारा हो गया हूँ।।
 उस का सुमिरन भूल न जाना कुछ भी सुनना और सुनाना काम कलुष में ऐसा लिपटा काया हुयी कामरी काली अब चादर क्या धुल पायेगी घड़ी आ गयी जाने वाली बिगड़ा तन का तानाबाना।। कई हक़ीक़त दफ़्न हो गए एक कहानी के चक्कर में बचपन से आ गया बुढ़ापा रहा जवानी के चक्कर में अब क्या खोना अब क्या पाना।। मूलाधार चक्र से लेकर सहस्त्रार तक जा सकता था  मानव जन्म लिया था इसमें मैं भी प्रभु को पा सकता था ज्ञानी होकर रहा अजाना।।
 आज कुछ हम भी सेल्फियाये हैं। खुद ही देखे हैं खुद लजाये हैं।। हम पे इतना यक़ीन ठीक नहीं हम अभी खुद को आजमाये हैं।। तुम पे कुर्बान हो नही सकते और भी चाहतें दबाये हैं।। दूर कितनों से हो गए जबसे हम तुम्हारे करीब आये हैं।। अपनी आदत से तंग हैं हम भी पर न क़ाफ़िर से छूट पाये हैं।।
 तुमको गुल या गुलाब क्या लिखते। फस्ले-गुल पर क़िताब क्या लिखते।। हुस्न लिखने में स्याहियां सूखीं इश्क़ था बेहिसाब क्या लिखते।। तुम हमारा बदल न ढूंढ़ सके हम तुम्हारा ज़बाब क्या लिखते।। तेरे शीशे में ग़र नहीं उतरे हम तुम्हे लाज़वाब क्या लिखते।। तुम नहीं थे तुम्हारी यादें थीं और खाना ख़राब क्या लिखते।। होश आये तो कुछ लिखें तुमपर  हुस्न सागर शराब क्या लिखते।। ज़िन्दगी को नहीं समझ पाये ज़िन्दगी का हिसाब क्या लिखते।।
 दिल की सब बीमारियां जाती रहीं। इस तरह रूसवाइयां जाती रहीं।। दर्द हैं, कुछ रंज़ है, यादें भी हैं तुम गये तनहाइयाँ जाती रही।। ख़्वाब थे कुछ नर्मदिल आते रहे नींद थीं हरजाईयाँ जाती रहीं।। शामें-हिज़्रां ने अनलहक़ कर दिया झूठ थीं परछाईयाँ जाती रहीं।। नेकियों के फल हमें ऐसे मिले क़ल्ब की अच्छाइयां जाती रहीं।। ऐ खुदा तेरा भी घर वीरान है अब तो अपनी दूरियाँ जाती रहीं।।
 नफ़रत सिखाने के इतने इदारे।। सीखें मुहब्बत कहाँ से बिचारे।। ज़माना है आँधी या तूफान कोई कहाँ बच सकेंगे ये छोटे शिकारे।। ये लाज़ो-हया सब हैं माज़ी की बातें निगाहों में होते थे पहले इशारे।। ज़माना मुनाफागरी पे फिदा है मुहब्बत के धंधे में खाली ख़सारे।। हमें भी डूबा ले मुहब्बत में अपनी बहुत रह लिए हम किनारे किनारे।। तेरे साथ के चार दिन ही बहुत है न कर और लम्बी उमर की दुआ रे।। सुरेशसाहनी कानपुर
 #पीड़ामुजफ्फरपुर हाकिम अंकल जब आते थे बड़े प्यार से समझाते थे कपड़े क्या हैं इक बन्धन हैं बन्धन के आगे जीवन है बन्धन खोलो मुक्ति मिलेगी पहले थोड़ी दिक़्क़त होगी फिर ज्यादा आराम मिलेगा उप्पर से पैसा बरसेगा तब मालिक को काम मिलेगा फिर हम काठ करेजा हाकिम क्रूर जानवर हो जाते थे हम जीकर फिर मर जाते थे जब हाकिम अंकल आते थे... सुरेश साहनी,कानपुर
 खुशियों के आलम भी होते। खुश अपने बरहम भी होते।। ये सचमुच अनजान सफर है तुम होते तो हम भी होते।। होते हैं जब गुल कांटों में शोलों में शबनम भी होते।। सब्र क़यामत तक रखते तो वादे पर क़ायम भी होते।। सचमुच का मौला होता तो हौव्वा -औ- आदम भी होते ।। हम ज़िंदा होते तो बेशक़ अपने खून गरम भी होते।। पेंचोखम उनकी ज़ुल्फ़ों के हम होते तो कम भी होते।। मुल्क़ अगर जिंदा होता तो आवाज़ों में बम भी होते।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 सोचा था हम तन्हा तन्हा रो लेंगे। क्या मालुम था आँसू खुल कर बोलेंगे।। चेहरा राज़ बता देगा मालूम न था सोचा था चुपके से आँसू धो लेंगे।। सोचा था ख्वाबों में मिलने आओगी बस यूँही इक नींद जरा हम सो लेंगे।। कब ये सोचा था इस दिल के गुलशन में अपने हाथों ही हम काटें बो लेंगे।। यार कभी तो धरती करवट बदलेंगी बेशक़ नफरत के सिंहासन डोलेंगे।। तुम ही दूर गए हो मुझसे मेरा क्या   जब आओगे साथ तुम्हारे हो लेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हमारे बाद क्या बाकी रहेगा। तेरा होना न होना ही रहेगा।। किसी की जान ले लेना सरल है मगर क्या बिन मरे तू भी रहेगा।। तेरी हर बात मैं मानूँगा वाईज अगर वां मैकदा साकी रहेगा।। बड़े दावे से धमकी दे रहा है मगर ये सोच क्या तू भी रहेगा।। सुरेश साहनी
 चलो बारिश में फिर से भीगते हैं। कोई बचपन का साथी ढूंढते हैं।। चलो फिर लाद लें कंधे पे बस्ता पकड़ लें फिर वही मेड़ों का रस्ता जिधर से हम घरों को लौटते थे उन्ही रस्तों पे बचपन खोजते हैं।। चलो फिर कागजी नावें बनाएं चलो कुछ चींटियाँ उसमे बिठाये अभी घुटनों तलक पानी भरा है चलो कॉपी से पन्ने फाड़ते हैं।।  भले हम देर कितना भीगते थे भले घर लौटने में कांपते थे भले माँ प्यार में ही डाँटती थी चलो बारिश में माँ को खोजते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 क्या मुझको बिसरा पाओगे। मेरे गीत तुम्ही गाओगे।। मुझसे प्रेम करो जी भर कर वरना भूल नहीं पाओगे।। रोग सरल यह प्यार नहीं है पीड़ा का उपचार नहीं है आने के अगणित कारण हैं जाने का आधार नहीं है इसके वैद्य हकीम नहीं हैं वापस मुझतक ही आओगे।। कारण दोगे कौन सखे तुम तब फिर रहना मौन सखे तुम इधर उधर आना छूटेगा पड़े रहोगे भवन सखे तुम नज़र झुकाए सुध बिसराये पनघट भी कैसे जाओगे।।
 यूँ तो लबों पे ज़ाम मचलते रहे मगर। हम थे कि बार बार सम्हलते रहे मगर।। तौबा के बाद उनसे कहाँ वास्ता रहा उनकी गली से रोज़ निकलते रहे मगर।। मैंने तो क़द का ज़िक्र कहीं भी नहीं किया बौने तमाम उम्र उछलते रहे मगर।। सहरा में अपनी प्यास ने झुकने नहीं दिया चश्मे शराब ले के उबलते रहे मगर।। मक़तल के इर्द गिर्द बिना एहतियात के शहादत का शौक लेके टहलते रहे मगर।। ।S
 बारिश में भीगा अखबार पढा मैंने थोड़ी तकलीफ़ हुई पर खबरें भी सूखी सूखी कहाँ मिलती हैं अक्सर सामान्य घटनाये चटपटी बनाकर छाप दी जाती हैं जिन्हें पढ़ते हैं लोग  चटखारे लेकर झूठ में पगी,खून से सनी दहशत भरी या आंसुओं से भीगी खबरें सूखी नहीं होतीं सच कहें ! आज के दौर में जब  आंख का पानी भर चुका है जब अखबार अपनी स्याही के लिए धनकुबेरों के मोहताज हों तब अखबार भले सूखे मिलें खबरें झूठ से सराबोर ही मिलेंगी।।
 कुछ हवाओं में ज़हर है कुछ फ़िज़ाओं में ज़हर। किस क़दर फैला हुआ है दस दिशाओं में ज़हर।। सिर्फ धरती ही नहीं अब आसमां भी ज़द में है  चाँद तारों में ज़हर है कहकशाँओं में ज़हर।। इस क़दर से आदमी की सोच ज़हरीली है अब प्रार्थनाओं में ज़हर है अब दुआओं में ज़हर ।। एक अच्छा आदमी उसके ज़ेहन से मर गया आदमी ने भर लिया जब भावनाओं में ज़हर।। वो बहारों के लबादे में ज़हर फैला गया लोग गाफ़िल कह रहे हैं है खिज़ाओं में ज़हर।। सुरेश साहनी कानपुर
 पहले प्रधानमंत्री  कि जानकारी रखना कांग्रेसी होना नही होता ।   उसकी आँखों के सामने एक ऐसा भारत था जहां आदमी की उम्र 32 साल थी। अन्न का संकट था। बंगाल के अकाल में ही पंद्रह लाख से ज्यादा लोग मौत का निवाला बन गए थे। टी बी ,कुष्ठ रोग , प्लेग और चेचक जैसी बीमारिया महामारी बनी हुई थी। पूरे देश में 15 मेडिकल कॉलेज थे। उसने  विज्ञानं को तरजीह दी। यह वह घड़ी थी जब देश में  26 लाख टन सीमेंट और नो लाख टन लोहा पैदा हो रहा था। बिजली 2100 मेगावाट तक सीमित थी। यह नेहरू की पहल थी। 1952 में पुणे में  नेशनल वायरोलोजी इन्स्टिटूट खड़ा किया गया। कोरोना में  यही जीवाणु विज्ञानं  संस्थान सबसे अधिक काम आया है। टीबी एक बड़ी समस्या थी। 1948 में मद्रास में प्रयोगशाला स्थापित की गई और 1949 ,में टीका तैयार किया गया। देश की आधी आबादी मलेरिया के चपेट में थी। इसके लिए 1953 में अभियान चलाया गया । एक दशक में  मलेरिया  काफी हद तक काबू में आ गया। छोटी चेचक बड़ी समस्या थी। 1951 में एक लाख 48 हजार मौते दर्ज हुई। अगले दस साल में ये मौते 12 हजार तक सीमित हो गई। भारत की 3 फी...
 दिन भी जब रात की तरह निकले। हम भी खैरात की तरह निकले।। यूँ सजाओ मेरे जनाजे को ठीक बारात की तरह निकले।। रात रो रो के काट ली हमने दिन न बरसात की तरह निकले।। बात कहना तो बात में दम हो बात भी बात की तरह निकले।। दिल की बाज़ी थी शान से खेले शह दिया मात की तरह निकले।। हम तेरे ग़म में इस कदर खोये दर्द नगमात की तरह निकले।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 सुनो हम तुम्हें पढ़ाना चाहते हैं नहीं किताब कॉपी  वाली पढ़ाई नहीं उस पढ़ाई से  तुम बिगड़ चुके हो क्योंकि जब तुम कहते हो ,  तुम्हें मानव मात्र से प्यार है तो दुख होता है कि कैसे सीख गए तुम प्यार करना आख़िर हम जहां रहते हैं वहां प्रेम अपराध ही तो है तो हम तुम्हें पढ़ाएंगे कि कैसे की जाती है नफरत और कैसे हो सकता है एक धर्म  दूसरे धर्म का का सनातन शत्रु कैसे कर सकते हो सफल घृणा उनके प्रति  जिन्होंने हेरोदस की संतानों को वर्षों दबाकर रखा  और कैसे नहीं मिला हेलेना को राजमाता का पद  अगली दस पीढ़ी तक तुम्हें आने चाहिए नफरतों के गुणा भाग पता होना चाहिए नफरतों का इतिहास भूगोल और पता होना चाहिए कि तुम्हारे माता पिता तुम्हारी ज़िन्दगी बिगाड़ रहें हैं पढा लिखा कर उस एक कागज के लिए जिसके बगैर भी तुम जी सकते हो ज़िन्दगी और कर सकते हो  नफरत जितनी चाहे उतनी वह नफरत जो सनातन है नफरत करने के लिए  पढ़ना भी ज़रूरी नहीं जबकि प्रेम के लिए ढाई अक्षर पढ़ना पहली शर्त है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तेरे दर तक जाते जाते। लौट गये हम आते आते।। आवाजें दे दे कर हारे खुद को कितनी देर बुलाते।। ख़ुद से कह ली ख़ुद ही सुन ली किससे कहते किसे सुनाते।। हम बहला सकते हैं खुद को पर दिल को कैसे बहलाते।। इश्क़ मुहब्बत दुनियादारी तुम होते तब तो समझाते।। रिश्तों की अपनी कीमत है कैसे खाली हाथ निभाते।। वो सुरेश नादान बहुत है रो पड़ता है गाते गाते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 तमाम दर्द कहे कुछ मज़ाहियात लिखूँ। कमाल लिखने से बेहतर है वाहियात लिखूँ।। हमेशा आप को लिखता हूँ खूबसूरत मैं कभी तो हक़ दो मुझे रात को मैं रात लिखूँ।।
 सुंदरतम त्रय ताप नसावन। सीता राम चरित मनभावन।। बालक बन दशरथ घर आये किलिकिलात धाए अति भाये पीछे तीन रानियाँ माँएं लेकर चलें मधुरतम व्यंजन।।  राम नाम तरय ताप नसावन।।
 क्यों तुम्हे स्मृत रखें हम प्यार में। छोड़कर तुम चल दिए मझधार में।। तुमने यारी गांठ ली थी और से हम भ्रमित थे व्यर्थ की मनुहार में।। चल दिए चुपचाप आखिर किसलिए हर्ज क्या था नेहमय तकरार में।। हम प्रतीक्षारत हैं आ भी जाओ प्रिय कोई सांकल भी नही हैं द्वार में।। तुम कहीं भी हो हमें विश्वास है लौट कर आओगे फिर परिवार में।। घर वही है जिस जगह अपनत्व है वरना कोई घर नही संसार में।। सुरेश साहनी,कानपुर
 दिलों की जुबानी ठहरने लगी है। हमारी कहानी ठहरने लगी है।। किधर लेके जायेगी हमको सियासत ग़ज़ल की रवानी ठहरने लगी है।। उधर हौसले झूठ के बढ़ रहे हैं इधर हक़बयानी ठहरने लगी है।। मंत्री के साले की ससुराल है ये तभी राजधानी ठहरने लगी है।। वतन चल रहा था कभी जिसके दम पे  वही नौजवानी ठहरने लगी है।। सुरेश साहनी , कानपुर
 छोड़ो !कविता बहुत लिख चुके इससे पेट नहीं भरता है जाकर कुछ सब्जी ले आओ बिटिया के प्रोजेक्ट के लिए जाकर कुछ चीजें दिलवा दो बच्चे को संग लेते जाना उसकी टीचर का बड्डे है कोई अच्छा गिफ्ट दिला दो ज्यादा महंगा मत ले लेना टीचर है तो उससे क्या है पांच सितंबर भी सिर पर है जो भी लेना सोच समझकर बहुत फिसलना ठीक नहीं है ध्यान रहे बीबी घर पर है...... सुरेशसाहनी, कानपुर
 तेरी ज़ुल्फ़ों में पेंचों खम बहुत है। हमें इस बात का भी ग़म बहुत है।। न इतना याद आओ जी न पायें तुम्हारी याद का इक दम बहुत है।। हमारे हिज़्र में भी खिल रहे हो मगर कहते हो तुमको ग़म बहुत है।। मुहब्बत नाम ही है ताज़गी का फ़क़त इस ज़ीस्त का संगम बहुत है।। हुई मुद्दत हमें बिछुड़े हुए भी हमारी आँख लेकिन अब भी नम है।। चलो अब झूठ के स्कूल खोलें सुना है झूठ में इनकम बहुत है।। सुरेश साहनी,कानपुर
 बहा रहे हो दीन जनों की ख़ातिर क्यों घड़ियाली आँसू। जो ग्लिसरीन लगाकर तुमने बना लिए रूमाली आँसू।। उसकी नज़रों में शायद हो मेरे आँसू के कुछ मानी जिसकी आंखों से टपकाये मैंने ख़्वाबख़याली आँसू।। मातम पुर्सी में आये हो दौलत भी मानी रखती है माना उनसे प्रेम बहुत है किन्तु बहाये खाली आँसू।।   मुझे पता है पाँच बरस जो दिखते नहीं बुलाने पर भी यही चुनाओं में अक्सर हो जाते हैं टकसाली आँसू।। अलग अलग रोने के ढब हैं अलग ठठा कर हंसने के भी बहुत कठिन है खुद पर हंसना बहुत सरल हैं जाली आँसू।। पैसे वाले हँस देते हैं अक्सर निर्धन के रोने पर उनके अपने कब रोते हैं रोते मिले रुदाली आँसू।। जब गरीब की हाय लगी है बड़े बड़े बर्बाद हुए हैं विक्रम बन ढोती हैं उनकी सन्ततियाँ बेताली आँसू।। सुरेश साहनी कानपुर
 साथ तुम्हारे मंज़िल तो क्या कुछ भी मुझसे दूर नहीं था। पर क्या करता हार गया मैं नीयति को मंजूर नहीं था।। साथ चले थे हम तुम दोनों जीवन के पथरीले पथ पर किन्तु प्रतीत रही जैसे हम आरुढ़ रहे सजीले रथ पर रहे गर्व से किन्तु हमारे दिल मे तनिक गुरुर नही था।। आत्मीयता थी हममें पर शर्तों का सम्बंध नहीं था रिश्ता था फिर भी स्वतंत्र थे बंधन का अनुबन्ध नहीं था रुचियों की सहमति थी कोई सहने पर मजबूर नहीं था।।
 तुम्हे पता है? मेरे पास बहुत से अनगढ़ शब्द है मध्ययुगीन सिक्कों जैसे मेरे पास  कारूँ का खजाना  नहीं है बड़ा सा शब्दकोश भी नहीं है जो भी है मैं उन्हें ही सहजता से परोस देता हूँ। तुम चख कर बताओ ग़ज़ल है या कविता!!!!! *सुरेशसाहनी
 साथ हमारे चल सकते हो। ख़ुद को अगर बदल सकते हो।। या  तफरीहतलब हो केवल थोड़ा साथ टहल सकते हो।। तिशना लब हैं हम मुद्दत से क्या शीशे में ढल सकते हो।। फूलों जैसे नाज़ुक हो तुम क्या काँटों में पल सकते हो।। क्यों ऐसा लगता है तुमको तुम सब कुछ हल कर सकते हो।। सब्र बड़ी नेमत है प्यारे गिरते हुए सम्हल सकते हो।। गिरगिट जैसे गुण हैं तुममे आगे बहुत निकल सकते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 एही रहिया हो,गईलें ललनवा हमार। साथे रहली जी, जनक दुलारी सुकुमार।। एही रहिया हो...  हेनिये से हमरा ललन चलि गईलें सियाजी आ रामलखन चलि गईलें लागतारे दूनो नयन चलि गईलें चलि गईलें हो हमरे परान अधार।। एही रहिया हो....... सुरेशसाहनी, कानपुर
 और कोई आये ना आये मेरा सावन आता होगा बूंदों बूंदों गिरते पड़ते आंगन आंगन आता होगा हरे भरे होकर वन उपवन मौसम को धानी करते हों दादुर मोर पपीहे मिलकर जिसकी अगवानी करते हों बाबुल की उम्मीद नही पर मेरा वीरन आता होगा .... और कोई आये ना आये मेरा सावन आता होगा..... अम्मा भले नहीं है तो क्या भाभी भी माँ के जैसी है ऊपर से रूखी है लेकिन दिल जैसे कोमल रुई है रीत निभाने सावन मेरा बचपन लेकर आता होगा.... और कोई आये ना आये मेरा सावन आता होगा..... सुरेश साहनी
 कानू सान्याल ने कथित रूप से 22 मार्च 2010 को आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने कहा था कि वामपंथ के या अन्य आंदोलनों के असफल होने का एक बड़ा कारण यही था कि इन्होंने भारत के असली शोषित वंचित समाज को नेतृत्व के अधिकार से वंचित रखा। जबकि संघ ने छद्म रूप में ही सही लेकिन समाज के दबे कुचले और अति पिछड़े लोगों को नेतृत्व का अवसर दिया। फलस्वरूप आज वह सत्ता में है। तथाकथित समाजवाद , साम्यवाद और छद्म अम्बेडकरवाद ने समाज की जमीनी सच्चाई और जातीय वर्गीकरण को नकारने की चेष्टा की ,जिसके फलस्वरूप समाज में नवब्राम्हण जातियों का उदय हुआ और जातीय संकीर्णताओं को प्रश्रय मिला। जिसके चलते स्वर्गीया फूलन देवी और लालाराम के वर्ग संघर्ष को जातिय संघर्ष का स्वरूप दे दिया गया।देखा जाए तो भारत में लेनिन और चेग्वेरा की सही मायने में देखा जाए तो फूलन देवी ही सच्ची उत्तराधिकारी हैं।
 धूप में कितना सुकूँ था जल गए हम छाँव में। मखमली कालीन ही अक्सर चुभी है पाँव में।। हम शहर की भीड़ में तन्हा तो हैं पर ठीक है अजनबी से हो गए थे हम स्वयं के गाँव में।।
 बात मत करना किसी अधिकार की। कब्र तुमने अपनी ख़ुद तैयार की।। क्या ज़रूरत है तुम्हारी मुल्क को क्या ज़रूरत है तुम्हें सरकार की।। जानना अपराध है इस राज में सूचनाएं गुप्त हैं दरबार की।। भ्रष्ट सारे कर्म अब नैतिक हुए देख लो खबरें सभी अखबार की।। आज का रावण समय का रत्न है सिर्फ़ सीता ने हदें सब पार की।। जो उन्होंने कह दिया वह सत्य है क्या ज़रूरत है किसी यलगार की।। झूठ है वीज़ा समय के स्वर्ग का  सत्य सीढ़ी है नरक के द्वार की।। झूठ से हमको भला क्या हर्ज़ है झूठ जब फितरत है अपने यार की।। झूठ ही इस दौर की तहज़ीब है झूठ ही बुनियाद है संसार की।। सुरेश साहनी
 ख़ामोश नज़रों से चुपके चुपके  जो कर रहा है सलाम प्यारे। वो हौले हौले उतर के दिल में  बना रहा है मुक़ाम प्यारे।। अभी मुहब्बत जवां नहीं है अभी तो रुसवाईयों का डर है अभी वो नादां अयां न कर दे  तमाम महफ़िल में नाम प्यारे।। ख़ामोश नज़रों से चुपके चुपके.... ज़हां को यूँ भी पसंद कब था जवानियों का मलंग होना जवां दिलों को पसंद कब है  किसी का रहना गुलाम प्यारे।। ख़ामोश नज़रों से चुपके चुपके.... न मर रहा हूँ न जी रहा हूँ पता है इतना कि पी रहा हूँ लबो से उसकी छलक रहे हैं  नज़र के प्यालों में जाम प्यारे।। ख़ामोश नज़रों से चुपके चुपके.... सुरेश साहनी अदीब
 तू हमें नार हरदम नवेली लगे। अपने अंदाज़ की तू अकेली लगे।। जो कि भगवान से भी सुलझ न सके यार तू इक अनोखी पहेली लगे।।
 बनती और टूटती आशा। इतनी जीवन की परिभाषा।। अम्मा की गोदी का बचपन बाबू के कंधे पर बचपन चंदामामा वाला बचपन या गोली कंचे का बचपन कागज के नावों पर तैरी चार कदम पर डूबी आशा।।..... बनती और बिगड़ती आशा। क्या है जीवन की परिभाषा।। फिर आया बस्ते का बचपन स्कूली रस्ते का बचपन खुशियां कम होने का बचपन कुछ पाने खोने का बचपन धीरे धीरे छुटते जाना गुल्ली डंडा खेल तमाशा।।..... बनती और बिगड़ती आशा। क्या है जीवन की परिभाषा।।
 #देश तो कोठियों में रहता है। *********************** ख़ुदकुशी से किसान का मरना अब हमें आम बात लगती है।। और इस देश मे किसान कहाँ हर कोई हिन्दू या मुसलमां है या किसी जात खाप का हिस्सा जाति के साथ उसकी तकलीफें  पार्टियों के प्रभाव में आकर भिन्न रूपों में व्यक्त होती हैं।। और फिर एक किसान का मरना देश के वास्ते मुफ़ीद ही है आज इक खेत से कहीं ज्यादा देश को भूमि की जरूरत है देश के जल जमीन जंगल पर सिर्फ और सिर्फ देश का हक है देश जो सूट बूट धारी है देश जो कोठियों में रहता है...... #सुरेशसाहनी कानपुर
 फिर से मेरे करीब न आओ तो बात है। अपने कहे को कर के दिखाओ तो बात है।। तुमने हमें भुला दिया ये और बात है भूले से हमको याद न आओ तो बात है।। तंग आ चुके हैं आईना-ए-दिल सम्हाल कर जुड़ ना सके यूँ तोड़ के जाओ तो बात है।। आये हो और उठ के इधर जा रहे हैं हम अब अलविदा को हाथ उठाओ तो बात है।। क्यों हो उदास रोक लो आंसू फ़रेब के मैय्यत पे मेरी जश्न मनाओ तो बात है।।  सुरेश साहनी कानपुर
 कल रात मैंने श्रीमती जी से पूछा तुम्हारे लिए दूध रख दें? क्यो? मैंने कहा कल नाग पंचमी है बाज़ार में दूध की भारी कमी है कल गाड़ी भी नहीं आएगी  और वह मुँह घुमा कर सो गई अर्थात पूरी बात सुनने के पहले  गहरी नींद में खो गई आज मैं टिफ़िन नहीं ले जा पाया आज दोस्तों का प्यार फिर काम आया शाम को मैंने घर के लिए खरीदे ढोकले और समोसे इस तरह आज का दिन रहा पुरी तरह भगवान भरोसे भाग वान भरोसे!!!
 कुछ मुलाकात के बहाने दे। कुछ तो दिल के करीब आने दे।। मौत से कह कि इंतज़ार करे ज़िन्दगी को गले लगाने दे।। शक़ नहीं है तेरी इनायत पर कुछ तो अपनों को आज़माने दे।। रात रंगीनियों में बीतेगी शाम तो सुरमई सजाने दे।। झूठी हमदर्दियों से बेहतर है मेरे ज़ख्मों को मुस्कुराने दे।। इसके साये में शाम करनी है अपनी जुल्फों के शामियाने दो।।  मौत मुद्दत के बाद आई है ज़िन्दगी अब तो मुझको जाने दे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जो भी चाहो वही सज़ा देना। पर खताएं मेरी बता देना।। बददु आएं  भी रास आती है कब कहा है मुझे दुआ देना।। क्या ज़रूरत है तुमको खंजर की सिर्फ़ हौले से मुस्कुरा देना।। आपको फिर गले लगाना है एक हल्का सा फासला देना।। वो इसे इश्तेहार कर देंगे खत रकीबों को मत थमा देना।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 मेरी कविताओ को देखे हुए  एक अरसा हो गया आखिर देखता भी कौन और कविताएँ भी धूल गरदा फाँक फाँक कर दमा की मरीज हो गयी हैं। क्या तुम उन्हें सुनोगे? शायद नहीं लोग तो सांस के मरीज बाप को भी नहीं सुनते हैं। हम क्या है?हुंह सुरेशसाहनी,कानपुर
 हमें पेट भरना था उन्हें ईश्वर की ज़रूरत थी मैंने भर पेट खाकर ईश्वर उन्हें दे दिया वे आज भी सम्हाल रहे हैं भारी भरकम ईश्वर कहीं गिर न जाये इसलिए वे सब दबे हुये हैं यदि वे उठ गए तो ईश्वर कौन सम्हालेगा? सुरेशसाहनी, कानपुर
 देवता और जनता सब जुटे थे    मंथन में निकला हलाहल अब जनता पी रही है  लापता हैं शिव कोई विकल्प भी नहीं पुनः मंथन होगा किंचित इस बार निकल आये अमृत कलश तब विकल्प बहुत हैं।
 हमारे बीच कहीं कुछ छुपा छुपा न लगे। ख़याल मेरा तुम्हारा जुदा जुदा न लगे।। किसी भी रस्म ,तकल्लुफ ओ मस्लेहत से अलग हमारा प्यार कहीं से नया नया न लगे।।सुरेशसाहनी
 तुम कहो हम और कबतक यूँ ही दीवाना फिरें। बेसरोसामां रहें हम बेदरोदाना फिरें।। दूर से ही कब तलक देखें उरूज़े-हुस्न को ऐ शमा हम किसकी ख़ातिर बन के परवाना फिरें।। तुम तो रुसवाई के डर से छुप के परदे में रहो और हम सारे शहर में बन के अफसाना फिरें।। तुम बनो अगियार ऐवानों की रौनक़ और हम अपनी गलियों में गदाई हो के बेगाना फिरें।।   तेरी ज़ुल्फ़ों के फतह होने तलक है ज़िन्दगी यूँ न हो हम लेके तेग-ओ-दिल शहीदाना फिरें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इस शहर में हूँ उन्हें मालुम है। हर नज़र में हूँ उन्हें मालुम है।। मेरी रुसवाई नई बात नहीं मैं ख़बर में हूँ उन्हें मालुम है।। लाख नज़रें वो चुराए उनके चश्मेतर में हूँ उन्हें मालुम है।। हुस्न ढलने से डरेगा क्योंकर         मैं सहर में हूँ उन्हें मालुम है।। ज़ीस्त ठहरी थी उन्हीं की ख़ातिर अब सफ़र में हूँ उन्हें मालुम है।। मैं मकीं हूँ ये भरम था मुझको अब डगर में हूँ उन्हें मालुम है।। बेबहर लाख हो गज़लें मेरी मैं बहर में हूँ उन्हें मालुम हैं।।  सुरेश साहनी कानपुर
 बहुत से लोग पूर्वाग्रह ग्रसित हैं। बड़े हैं क्यों कहें वे दिग्भ्रमित हैं।। वो रहना चाहते है दूर मुझसे मुझे लगता है वे ही संक्रमित हैं।। है उनकी सोच पर पहरा किसी का वे अपनी सोच से भी संकुचित हैं।। किसी की जाति क्या है धर्म क्या है भला इसमें किसी के क्या निहित हैं।। वही होता है जो प्रभु की है मर्जी बताएं आप क्यों इतने व्यथित हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ये जान ले लो ये जान है क्या। जो तुम नहीं तो जहान है क्या।। ये चांदनी भी है चार दिन की इसी पे तुमको गुमान है क्या।। ये ख़ैरख़्वाही ये रंगरोगन ये जिस्म कोई मकान है क्या।। हमें भी दिल दो कि हम भी देखें ये इश्क़ का इम्तेहान है क्या।। जफ़ा के मारे हैं मयकदे में ये दरदेदिल की दुकान है क्या।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 शाखे-गुल झूम उठी है फिर से। शबनमी प्यास जगी है फिर से।। फिर कोई शाह हुआ है बेताज कोई मुमताज़ मिली है फिर से।। फिर से आया है कोई इश्क़ लिए कोई दीवार गिरी है फिर से।। माहरुख कोई अयाँ है कि अदीब चाँदनी फैल गयी है फिर से।। ख़्वाब से जाग उठा हूँ शायद वज़्म में उसकी कमी है फिर से।। सुरेश साहनी,अदीब
 रात घूंघट सरक गया फिर से। चाँद जैसे चमक गया फिर से।। आज उसने कुछ इस तरह देखा दिल हमारा बहक गया फिर से।। उसने गजरा लगा लिया होगा मेरा दामन महक गया फिर से।। तुम हँसे खिलखिला के कुछ ऐसे दिल का गुलशन चहक गया फिर से।। जाने किस बात पे लजायी सुबह सर्द आलम दहक गया फिर से।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कुएं में ही भाँग पड़ी है । सकल व्यवस्था गली-सड़ी हैं ।।  व्यापम की माया से तौबा वरना सर पर मौत खड़ी है।। सभी लीक पर हांफ रहे हैं किसने नई राह पकड़ी है।।
 अपनी मर्जी चला नहीं सकते। तुम हमें यूँ भुला नहीं सकते।। हमने माना कि तुम हवा हो पर मेरी खुशबू छिपा नहीं सकते।। इन निगाहों में डाल दो नजरें तुम अगर कुछ बता नहीं सकते।। तुम रुलाओ किसी को क्या हक़ है ग़र किसी को हँसा नहीं सकते।। एक पल में बिगाड़ सकते हो चार दिन में बना नहीं सकते।। प्यार की हद में रूठना जायज़ हद से आगे मना नहीं सकते।। हम को भी अपनी हद में रहना है इस से ज्यादा सुना नहीं सकते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुम अगर भूल गए हो तो बता दे तुमको भूल से याद मेरी आये तो बिसरा देना दिल तो बच्चा है जो बहकेगा सम्हल जाएगा लड़खड़ाओ जो कभी खुद को सहारा देना। ।    सुरेश साहनी
 ये माना कि कोई मुरव्वत न दोगे। हमें ग़ैर समझोगे अज़मत न दोगे।। ये सौदागरी है भला किस किसम की  मुहब्बत के बदले मुहब्बत न दोगे।। तुम्हें दिल दिया है मुकर क्यों रहे हो बयाना उठाया था बैयत न दोगे।। तुम्हें चाहिए सिर्फ दौलत की दुनिया मेरे जैसे मुफ़लिस को सिंगत न दोगे।। कोई मर भी जाये तुम्हारी बला से बिना कुछ मिले कोई राहत न दोगे।। हमें भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं है हमें जिंदगी भर की दौलत न दोगे।। करें क्या मुहब्बत का ओढ़ें- बिछाएं फ़क़त दिल ही दोगे नियामत न दोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इन तीनों का ध्यान किधर है। देख रहे हैं जान किधर है।। घर से निकले तुलसी उपवन पूछ रहे जापान किधर है।। सूरत से अच्छे लगते हैं सीरत की पहचान किधर है।। एक बड़ा योगी है इनमें योगी का परिधान किधर है।। इनसे पूछो इन तीनो का डोल रहा ईमान किधर है।। सुरेश साहनी
 मैं बाँधे हुए सर पे कफ़न लौट रहा हूँ। मैं अपने वतन से ही वतन लौट रहा हूँ।। मै कृष्ण नहीं फिर भी ग़रीबउलवतन तो हूँ पीछे है कई कालयवन लौट रहा हूँ।। सैयाद ने दे दी है हसरर्तों को रिहाई अर्थी लिए उन सब की चमन लौट रहा हूँ।। हसरत नहीं,उम्मीद नहीं फिर भी यक़ी है महबूब से करने को मिलन लौट रहा हूँ।। बरसों की कमाई यही दो गज की जमीं है धरती को बिछा ओढ़ गगन लौट रहा हूँ।। सुन ले ऐ करोना तुझे मालूम नही है तू चीन जा मैं करके हवन लौट रहा हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 चिड़ियाघर ख़त्म होते जा रहे हैं और ख़त्म होते जा रहे हैं शहर भी अब बच्चे शेर को पहचानते हैं उन्होंने लॉयन किंग और जूमाँजी देखी है वे डिस्कवरी और वाइल्डलाइफ भी देखते हैं वे पहचानते हैं लेपर्ड कोब्रा जिराफ़ और क्रोकोडायल भी पर उनकी मासूम आंखें नहीं पहचान पाती इंसान में छुपे शैतान को उस भेड़िये को जो दिन के उजाले में आता है आदमी बनकर और उस मासूम को बनाता है अपना शिकार जो इतना भी नहीं जानती  कि भँवरे फूलों पर क्यों मंडराते हैं वो भागती है तितलियों के पीछे इस बात से अनजान कि आदमखोर अब जंगलों में नहीं रहते.....
 याद आ आ के मुझे भूल गया। हैफ वो पा के मुझे भूल गया।। साथ देने की कसम भी खाई फिर कसम खा के मुझे भूल गया।। और हैरत तो इसी बात पे है ख़्वाब में आ के मुझे भूल गया।। गाँव मे था तो मेरा था दिल से पर शहर जा के मुझे भूल गया।। भूल जाना भी अदा है शायद ख़्वाब दिखला के मुझे भूल गया।।
 क्या होगा केवल प्रमाद से यह सोने का वक्त नहीं है। हटो, हमारी राह न रोको अब रुकने का वक्त नहीं है।। कोई जन्म से दास नहीं है कोई प्रभु का खास नहीं है ईश्वर का प्राकट्य प्रकृति है क्या तुमको आभास नहीं है यूँ भी गढ़े हुए ईश्वर से अब डरने का वक्त नहीं है।। नियम प्रकृति के अखिल विश्व में अब तक एक समान रहे हैं भेदभाव या वर्ग विभाजन कुटिल जनों ने स्वयं गढ़े हैं आज विश्व परिवार बनाना-- है, लड़ने का वक्त नहीं है।। कर्म योग है योग कर्म है सामाजिकता श्रेष्ठ धर्म है प्रकृति संतुलित रहे यथावत मानवता का यही मर्म है इससे भिन्न किसी चिन्तन में अब पड़ने का वक्त नहीं है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 इस नज़्म पर तवज्जह चाहूंगा।समाअत फरमायें-- तुम अगर याद न आते तो कोई बात न थी याद आ आ के मेरे दिल को सताते क्यूँ हो। मैं तुम्हे भूल गया हूँ ये भरम है मेरा तुम मुझे भूल गए हो तो जताते क्यूँ हो।। चंद दिन मेरे रक़ीबों के यूँ ही साथ रहो चंद दिन और मुझे खुद को भुला लेने दो। चंद दिन और मेरे ख़्वाब में मत आओ तुम तुरबते-ग़म में तेरे मुझ को सुला लेने दो।। एक मुद्दत से तेरी याद में सोया भी न था सो गया हूँ तो मुझे आ के जगाते क्यों हो।। यूँ रक़ाबत में सभी रस्म ज़रूरी है क्या जानते बूझते पै- फातेहा आते क्यूँ हो। एक काफ़िर को तेरे बुत से भी नफ़रत है अगर संग अगियार के आ आ के जलाते क्यूँ हो।। इतनी उल्फ़त थी अगर मुझको भुलाया क्यों था और नफ़रत थी तो फिर सोग मनाते क्यूँ हो।। सुरेश साहनी कानपुर
 जीते जी मत मरने लगना। हमसे प्यार न करने लगना।। दुनियादारी के दलदल में अपने पाँव न धरने लगना।। आगे नाथ न पीछे पगहा उनको मत अनुसरने लगना।। नज़रों को काबू में रखना नज़रों से मत गिरने लगना।। साकी की क़ातिल नज़रों से शीशे में न उतरने लगना।। उस हरजाई की आदत है कहना और मुकरने लगना।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हुश्न की प्यास जगाने वाले। तिशना लब छोड़ के जाने वाले।। आह की आग में जल जाएगा बेजुबां दिल को सताने वाले।। घर तेरा भी है इसी बस्ती में दिल की दुनिया को जलाने वाले।। जिस्म शीशे का है घर शीशे के दिल को पत्थर का बताने वाले।। छोड़ जाते हैं अना की ख़ातिर प्यार से घर को बनाने वाले।। डूब जाते हैं वफ़ा के हाथों इश्क़ में हाथ बढ़ाने वाले।।
 सुना है दाल महँगी हो गयी है। कहो क्या चीज सस्ती हो रही है।। हमारे गांव कस्बे बन रहे हैं हमारी नस्ल कुछ तो खो रही है।। हम तंगदिल नहीं हैं हाथ तंग है इधर कुछ जेब भी ढीली हुयी है।। गलतफहमी हैं अच्छे दिन की बातें गए जो दिन कभी लौटे नहीं हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कुछ तुम्हें भी उलझने हैं ,हम भी कुछ मजबूर हैं। अब तो लगता है यही इस राह के दस्तूर हैं।। ज़िन्दगी की राह में ये इश्क के इनाम हैं मरहले कुछ बढ़ गए हैं, मंज़िलें भी दूर हैं।। ग़म के बादल इस क़दर छाये हैं अपने हाल पर चाँद भी मद्धिम हुआ ,सूरज भी अब बेनूर है।। सुरेशसाहनी
 तुम्हे मतलब है केवल व्याकरण से। मैं लिखता हूँ मगर अंतःकरण से।। कोई जागा तो क्यों जागा ये जानो शिकायत है तुम्हे गर जागरण से।। कोई जीये-मरे अपनी बला से तुम्हे कब फर्क है जीवन-मरण से।। शोहरत में बुरी आदत से बचना पतित रावण हुआ सीता हरण से।। उसे उतना ही ऊँचा ओहदा है गिरा जितना जो अपने आचरण से।। वो दिल से गोडसे लादेन है लेकिन बना फिरता है गांधी आवरण से।। सुरेशसाहनी
 इक आपसे मुहब्बत कितनी बड़ी ख़ता है। खोजें कहाँ पे ख़ुद को इक दिल भी लापता है।। वो दुआयें दे रहे हैं सौ साल तक जियें हम छोटी सी इस ख़ता की कितनी बड़ी सज़ा है।। उनके बग़ैर जीना इसे यूँ समझ ले कोई कभी उनमें मरने वाला मर मर के जी रहा है ।। सुरेश साहनी कानपुर
 ये हुस्न है बेहिसाब लेकिन तुम्हीं नहीं लाज़वाब लेकिन तुम्हारी ख़्वाहिश थी दिल की महफ़िल हमारा घर था ख़राब लेकिन ये डर था कांटों से क्या निभेगी चुभे हैं हमको गुलाब लेकिन के डगमगाए हैं उनसे मिलकर सम्हालती है शराब लेकिन भरोगे दामन में चांद तारे दिए हैं तुमने अज़ाब लेकिन गुरुर करने का तुमको हक़ है  ढलेगा इकदिन शबाब लेकिन  Suresh sahani
 हर अना चूर चूर होने दो। ख़त्म दिल के फितूर होने दो।। कुछ इज़ाफ़ा तो इश्क़ में होगा इक ज़रा दिल से दूर होने दो।। तोहमतें बाद में लगा लेना पहले मुझसे कुसूर होने दो।। हुस्न इतरा लिया नज़ाकत से इश्क़ को भी गुरुर होने दो।। आशिक़ी में अभी अनाड़ी हैं कुछ हमें  बाशऊर  होने दो।। इश्क़ में कोर्निश बजा लेंगे उन को मेरे हुज़ूर होने दो।। उनकी तल्खी भी इक अदा समझो उनको गुस्सा ज़रुर होने दो।। आज रूठे हैं कल तो मानेंगे सिर्फ़ गुस्सा कफूर होने दो।। आज चेहरे पे इक तबस्सुम है कल उन्हें नूर नूर होने दो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 लिख तो दिया पढ़ेगा कौन। कह जो दिया सुनेगा कौन।। सूरज हो या चाँद सितारे सब हैं अपने गम के मारे  सब के सब अपनी धुन में है किसके लिए रुकेगा कौन।। सारी रात जागते बीती पर गागर रीती की रीती स्वाति बूँद से दुर्लभ प्रतिफल पूरक मेघ बनेगा कौन।। मन मीरा है तन तुलसी हैं आशायें फिरती हुलसी है। सूर सरीखे गिर तो जाएँ पर अब बाँह गहेगा कौन।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 बरसों मेरी तलाश में खोया रहा हूँ मैं। बरसों मेरी ही याद में डूबा रहा हूँ मैं।।  बरसों मेरा मिजाज़ मेरे शौक गुम रहे बरसों तेरे वजूद को जीता रहा हूँ मैं।। पीने को एक ज़ाम उठाया तो उठ लिए वो जिनकी महफ़िलों को सजाता रहा हूँ मैं।। ये आख़िरी गुनाह नहीं है मेरा मग़र क्यों मग़फ़िरत की चाह लिए जा रहा हूँ मैं।। बाक़ी बहुत है ज़िन्दगी के मरहले अभी शम्अ -ए-सुखन जलाओ अभी गा रहा हूँ मैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 एक सज्जन ने कहा कि  प्रदेश में जंगलराज है। मैंने कहा कि योगी महात्मा  और कहां मिलेंगे उन्होंने कहा - पहले नही था। मैंने समझाया उत्तर प्रदेश ही नहीं  पूरा देश जंगल रहा है क्योंकि जानवर  फिर भी लिहाज करता है आदमी शुरू से  आदमी को खल रहा है....... Suresh Sahani Kanpur
 जिससे सच की बू आती हो जो इक उम्मीद जगाती हो जिससे सरकारे हिलती हो वह जिसमें बागी तेवर हो सरकार समझती है जिसमें आवाज उठाने का दम है वह कविता नही रियाया के हाथों में इक टाइमबम है सरकारें ऐसी कविता पर बैन लगाती आयी हैं सरकारें ऐसे कवि को बागी ठहराती आयी हैं जनता को ऐसा लगता है जनता सरकार बनाती है पर सरकारों को मालुम है जनता सरकार नहीं होती सुरेशसाहनी, अदीब,कानपुर
 हम समाचार हो गए होते। छप के अख़बार हो गए होते।। बच गए हम ख़ुदा की रहमत है वरना मिस्मार हो गए होते।। वक़्त की मार से बचे वरना दो बटे चार हो गए होते।। हम तेरे ग़म से कामयाब हुए वरना बेकार हो गए होते।। उम्र कुछ दुश्मनों की बढ़ जाती हम जो बीमार हो गए होते।। काश जुल्फ़े-सियाह में तेरे हम गिरफ्तार हो गए होते।। आज कुछ और दास्ताँ होती तुम जो तैयार हो गए होते।।
 लोग चेहरे की धूल देखेंगे। क्या सफ़र के उसूल देखेंगे।। देन कांटों की कौन समझेगा देखने वाले फूल देखेंगे।। हम नमाज़ी हैं या के पाज़ी हैं सब खुदा के रसूल देखेंगे।। अपनी निस्बत है नूर से उसके क्या किसी को फ़िज़ूल देखेंगे।। याद रखना है नफ़्से-आख़िर तक कैसे जाते हो भूल देखेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 भरी है सादगी उसकी अदा में। नज़र डूबी हुई है इक हया में।। जो दीवानी हुयी जाती है दुनिया कोई तो बात है उस बेवफ़ा में।। निगाहों से हमें गिरने न देना के रख लेना हमें अपनी दुआ में।। कभी तुमको हमारी याद आये बुला लेना हमें अगली सदा में।। अगर तुम साथ हो तो ज़िन्दगी है तुम्हारे बाद राहत है क़ज़ा में।। सुरेशसाहनी
 तुम्हारा फूल अब फरसा लगे है। तुम्हारी बात से डर सा लगे है।। हमारे मुल्क को तुम बेच दोगे तुम्हारी साज़िशी मंशा लगे है।। हमारे साथ कुछ धोखा हुआ है न जाने क्यों हमें ऐसा लगे है।। ग़रीबी भी बला की बेबसी है कि अपने आप पर गुस्सा लगे है।। लहू पीकर बड़ा नेता हुआ है कहाँ से वो तुम्हे इंसा लगे है।। गज़ब हैं आज के अख़बार वाले जिन्हें शैतान भी ईसा लगे है।। मेरी आँखों में कोई खोट होगा तुम्ही दिल से कहो कैसा लगे है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 लब सीने की बात न करना। विष पीने की बात न करना।। डर डर कर जीना क्या जीना यूँ जीने की बात न करना।। जागी आंखों पर पतियाना आईने की बात न करना।। देख के वो अनजान बना उस नाबीने की बात न करना।। सुरेश साहनी, कानपुर ऐश करो बिन्दास जियो तुम ना जीने की बात न करना।।
 कोई माने या ना माने क्या फर्क पड़ता है।तमाम मठाधीश हैं दूसरे की वाल पर आने में शरमाते हैं।एक ने अभी कुछ दिन पहले पोस्ट किया मैंने तमाम कवि/शायर, लिखने वाले छोटे/बड़े कवियों को अनफ्रेंड किया है। अब उनके बड़े होने के भ्रम सॉरी अहम का क्या किया जाय।हमें शरद जोशी जी की बात ध्यान रहती है कि, "लिखते जाईये आपका गॉड फादर कोई नहीं पर लाल डिब्बा तो है। लिख लिख कर लाल डिब्बे में डालते जाईये, एक दिन पहचान बन जाएगी।; आज लाल डिब्बा नहीं है पर ईमेल है,ब्लॉग्स हैं ,फेसबुक है।पर्याप्त है। फिर कवि स्वान्तःसुखाय लिखता है।कवि स्थितिप्रज्ञ है।    वैसे भी हिंदी पाठकों की स्थिति अलग है।उसके मूड की बात है। वह वो पढ़ना चाहता है जो उसे नहीं उपलब्ध है।सुलभ को साहित्य नहीं मानना उसकी बीमारी है। वो सीता में कमी निकाल कर राम को जस्टिफाइ कर सकता है।रावण को सच्चरित्र साबित कर सकता है। सनी लियोनी को आदर्श मान सकता है।फिर एक्सेप्ट तो तुलसीदास भी अपने समय मे नहीं रहे होंगे।आज का कवि किस खेत की मूली है।
 जब कहें अपनी कहानी या कि अफसाना तेरा। क्या बताये ख़ुद को अपना या कि बेगाना तेरा।। तुझको फुरसत थी कहाँ समझे मेरी दीवानगी फिर भी मेरा सब्र था हो जाना दीवाना तेरा।। तू मुझे अपना तो कह दिलवर नहीं दुश्मन सही अपनी मंज़िल है किसी सूरत भी कहलाना तेरा।। ताज़ तो मुमकिन नहीं मुमताज़ अपनी ज़ीस्त में पर मुझे तस्लीम है अंदाज़ शाहाना तेरा।। तू शमा बन कर जले ये मैं न चाहूंगा कभी घर को रोशन तो करेगा हुस्न ऐ जाना तेरा।।   सुरेश साहनी,कानपुर
 मस्ती भरी उमंग के मौसम नहीं रहे। उनके हमारे संग के मौसम नहीं रहे।। तन्हाइयों ने दिल में मेरे घर बना लिए महफ़िल में राग रंग के मौसम नहीं रहे।। आयी नहीं बहार की फागुन चला गया आये नहीं अनंग के मौसम नहीं रहे।। वो सर्दियां वो गर्मियां वो बारिशें कहाँ पहले के रंग ढंग के मौसम नहीं रहे।। वो लोग वो अलम वो ज़माने गए कि अब वो झूमते मलंग के मौसम नहीं रहे।। वो सावनी फुहार वो बागों में झूलना वो पेंच वो पतंग के मौसम नहीं रहे।। उठती थी देख के जो उन्हें इस लिबास में दिल मे उसी तरंग के मौसम नहीं रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इस तरह के बयान ठीक नहीं। यूँ भी ऊंची उड़ान ठीक नहीं।। तीर अपने तो ठीक है लेकिन गैर ले ले कमान ठीक नहीं।। कुछ ज़मीं पर रहो तो बेहतर है हर घड़ी आसमान ठीक नहीं।। ये मुहब्बत के लोग हैं इनसे इतनी कड़वी जुबान ठीक नहीं।। आदमी वक़्त का मुलाज़िम है हैसियत पर गुमान ठीक नहीं।। दम है किरदार पे सवाल करो मत कहो खानदान ठीक नहीं।।   सुरेश साहनी
 हमारे दरमियान कुछ तो है। जमीन ओ आसमान कुछ तो है।। अपने हक़ में कोई खड़ा तो हैं बाज़ुबाँ बेज़ुबान कुछ तो है।। तवारीखों में हम मिलें न मिलें हाँ मग़र दास्तान कुछ तो है।। हम हैं गर्दिश में मान लेते हैं आपका एहसान कुछ तो है।। अपनी क़िस्मत में कुछ बबूल सही धूप में सायबान कुछ तो है।। सुरेशसाहनी
 हम अपना दामन सियाह कर लें। कहो तो खुद को तबाह कर लें।। अभी मिले हो अभी से तौबा मिले हैं कुछ तो गुनाह कर लें।। ये इश्क़ गर कोई काफ़ीरी है तो अपना दिल ला इलाह कर ले।। तेरी वफ़ा पर यक़ीन क्या हो कहो तो फिर भी निबाह कर लें।। ख़राब नीयत जो हो रहे हैं तो बेहतर है निकाह कर लें।। सुरेश साहनी कानपुर
 हम न बदले ज़माना बदलता रहा। हम वहीँ रह गए वक्त चलता रहा।। जब बहारों ने हमसे किनारा किया तब नियति ने किसे क्या इशारा किया मन भ्रमर बेखबर सा मचलता रहा।। हुस्न की बदगुमानी बढ़ी इस कदर इश्क़ होता रहा बेतरह बेक़दर इश्क़ बढ़ता रहा  हुस्न ढलता रहा।। शम्मा जलती रही अपनी रौ रात भर सो गया कोई जागा कोई रात भर मोम बनकर वो पत्थर पिघलता रहा।। दोष दें क्या तुम्हें जब नियति ने छला शुभ घड़ी कितने पल तब ठहरती भला चाँद बदली में छिपता निकलता रहा।। रात मधु यामिनी की सरकती रही लोक लज्जा मिलन को तरसती रही शुभ मुहूरत न जाने क्यों टलता रहा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हम न बदले ज़माना बदलता रहा। हम वहीँ रह गए वक्त चलता रहा।। जब बहारों ने हमसे किनारा किया तब नियति ने किसे क्या इशारा किया मन भ्रमर बेखबर सा मचलता रहा।। हुस्न की बदगुमानी बढ़ी इस कदर इश्क़ होता रहा बेतरह बेक़दर इश्क़ बढ़ता रहा हुस्न ढलता रहा।। शम्मा जलती रही अपनी रौ रात भर सो गया कोई जागा कोई रात भर मोम बनकर वो पत्थर पिघलता रहा।। दोष दें क्या तुम्हें जब नियति ने छला शुभ घड़ी कितने पल तब ठहरती भला चाँद बदली में छिपता निकलता रहा।। रात मधु यामिनी की सरकती रही लोक लज्जा मिलन को तरसती रही शुभ मुहूरत न जाने क्यों टलता रहा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 दूसरों के लिए जो न बहा, वो लहू क्या है ...   हावड़ा में चेंगाईल नाम का एक छोटा सा उपनगर है। उसमें एक बस्ती है मोल्लापाड़ा। वहाँ रहने वाले सिराजुल इस्लाम और उसकी पत्नी आएशा बेगम उस वक्त भारी मुश्किल में पड़ गए जब आएशा बेगम को विषधर साँप ने काट लिया। एक तो बारिश का मौसम ऊपर से दूसरा कहर कि आएशा साढ़े सात महीने की अंत:सत्वा। जरा आकलन कीजिये, कहाँ ईद के आने के इंतजार में दिन गिन रहे थे, कहाँ साँप ने ऐन मौके पर गेम चेंजर का रोल प्ले कर लिया! फिर उसके ऊपर और कहर कि सीमित सुविधा वाले स्थानीय अस्पताल ने हाथ खड़े कर दिये। स्थिति विकट ही थी, उपचार की जगह अपचार होना ही होता, परिवार वालों ने गाड़ी दौड़ाया कोलकाता मेडिकल कॉलेज, बंगाल का सबसे बड़ा सरकारी मेडिकल प्रतिष्ठान। समझना आसान ही है, निम्न आय वर्ग का यह परिवार भी कुछ आशंका, कुछ डरा सा ही इस सरकारी अस्पताल में आया होगा, कि और कोई चारा न था। इसी बीच चौबीस घंटे गुजर गए। हालत और गंभीर हो गई थी। डॉक्टरों ने परीक्षण से पाया, दोनों किडनी ने लगभग काम बंद कर ही दिया था, यूरीनेरी ट्रैक एफेक्टेड, यूरीन पास होना बंद, शरीर पूर्णत: फूला हुआ, और शरीर मे...
 एक गीत आपके समीक्षार्थ --------------------------------- मन आया तुमको प्रिय लिख दें डर लगा तुम्हें अप्रिय न लगे।। मेरी प्रशस्तियों में तुमको अभ्यर्थन का आशय न लगे।।..... तुम प्रिय हो लेकिन प्रिया नहीं जब नेह निमन्त्रण लिया नहीं इससे बेहतर जी सकती थी तुमने वह जीवन जिया नहीं।। मैं यही सोच कर मौन रहा सुनकर तुमको विस्मय न लगे।।..... मैं प्रेमी हूँ वासना शून्य मैं साधक हूँ कामना शून्य परिव्राजक हूँ पर दीन नहीं भिक्षुक हूँ पर याचना शून्य फिर भी इक डर सा बना रहा अनुराग वासनामय न लगे।।.... है प्रेम किन्तु आसक्ति नहीं मैं काया कामी व्यक्ति नहीं तुम लगे मुझे चित निर्विकार यह प्रयोजनिय अभिव्यक्ति नहीं सोचा तुमको अद्वितीय कहें पर लगा तुम्हें अतिशय न लगेI।..... मैं अटल प्रेम का साधक हूँ मैं अमर प्रेम का बन्धक हूँ मैं व्यष्टि सृष्टि का गायक हूँ अपनी समष्टि का नायक हूँ तुम पर यूँ बन्ध नहीं डाले प्रस्ताव तुम्हें अनुनय न लगे।।...... सुरेशसाहनी, कानपुर Photo courtesy- Jagdish Narayan
 किसी का दामन बचा रहा हूँ। कि हाथ अपने जला रहा हूँ।। अज़ल से अपना ही मुन्तज़िर हूँ अज़ल से ख़ुद को बुला रहा हूं।। अगरचे रूठा हूँ ज़िन्दगी से उसे क्यों इतना मना रहा हूँ।। अजीब हालत है आशिक़ी की खुशी से आँसू बहा रहा हूँ।। ये तिश्नगी और बढ़ रही है कि प्यास जितनी बुझा रहा हूँ।। न पूछ दीवानगी का आलम मैं अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ।। जो इश्क़ सदियों से चल रहा है उसी के किस्से सुना रहा हूँ।। अज़ल- सृष्टि का आरम्भ मुन्तज़िर- प्रतीक्षारत अगरचे- यदि तिश्नगी- प्यास सुरेश साहनी, कानपुर
 मुझसे मेरा ही वक्त ठहरकर नहीं मिला। खुशियों को साथ लेके मुकद्दर नहीं मिला।। जब ठौर मिल गया तो ठिकाना नहीं मिला ठिकाना मिला तो रुकने का अवसर नहीं मिला।। दरिया के जैसे चलके यहाँ आ गए तो क्या सहरा मिला यहाँ भी समुन्दर नहीं मिला।। ताउम्र भटकते रहे जिसकी तलाश में उस घर के जैसा हमको कोई घर नहीं मिला।। दीवार मिल गई तो कभी छत नहीं मिली छत मिल गयी तो मुझको मेरा सर नहीं मिला।। सोचा था मक़बरा ही क़यामत तलक रहे तो इस मियाद का कोई पत्थर नहीं मिला।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कुछ भी कहकर मुकरने लगे हो। तुम किसे प्यार करने लगे हो।। साथ जीने को हमने कहा था फिर कहाँ जाके मरने लगे हो।। आईने ने बताया है हमको कुछ ज़ियादा संवरने लगे हो।। तुम नज़र में रहो बेहतर है क्यों नज़र से उतरने लगे हो।। खुद को हम भी कहाँ तक सम्हालें तुम भी हद से गुजरने लगे हो।। क्या तुम्हारी छवि को सम्हालें तुम तो खुद से बिखरने लगे हो।। हो न हो कुछ बदल तो रहा है तुम दिनोदिन निखरने लगे हो।। सुरेशसाहनी
 ख़ुद को तलाशते हुए खोना पड़ा हमें। अक्सर खुशी के वास्ते रोना पड़ा हमें।। बरसों बरस सलीब चढ़ाए गए हैं हम अपना सलीब बारहा ढोना पड़ा हमें।। फिर ज़िंदगी भी क्या किसी तकिए से कम रही तनहा तमाम उम्र ही सोना पड़ा हमें।। अक्सर कि जिसके हाथ बिखेरे गए सुरेश उसके लिए ही ख़ुद को पिरोना पड़ा हमें।। गुम हो गए कभी कहीं होते हुए भी हम अक्सर कहीं न होके भी होना पड़ा हमें।। सुरेश साहनी कानपुर
 खालीपन कुछ अधिक दुखद है। व्यस्त रहें ये कुछ सुखप्रद है।। यदा कदा ख़ुद में खो जाओ मन के भीतर ही अनहद है।।  शोक हानि का करो उचित है चिंता चिता बराबर पद है।। तुम तबतक खुश रह सकते हो जबतक सांसों की आमद है।। यह तन ही दुःख का आगर है मृत्यु दुखों की अंतिम हद है।। प्रथमानन्द चरण पितु माँ के परमानन्द परमप्रभु पद है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 नीतीश कुमार जी निषादों को एसटी का दर्जा देने की सिफारिश करते हैं वे बधाई के पात्र हैं,पर अति पिछड़ावर्ग सम्मेलन में बुलाते हैं तब भ्रम होता है।समाजवादी पार्टी पहले से अनुसूचित जाति की सूची में शामिल निषाद उपजातियों मंझवार ,तुरैहा,बेलदार और खरवार को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने की बात करती है।बीजेपी फिशरमैन सेल बनाती है।कांग्रेस फिशरमैन कांग्रेस। निषाद खुद को श्रृंगी ऋषि और वेदव्यास की संतान बताते हैं तो हरियाणा के कश्यप खुद को कश्यप ऋषि की संतान और राजपूत क्षत्रिय कहते हैं।       पूर्वी उत्तरप्रदेश के निषाद खुद को दलित मानने में शरमाते है। वे कहते हैं कि हम अश्वमेध यज्ञ धारी राजा राम के सखा महाराज गुह्य के वंशज हैं।अभी एक निषाद स्त्री को सामूहिक दुराचार के बाद पूरे गांव में नग्न करके घुमाया गया। वहां से बीजेपी की केंद्रीय मंत्री भी हैं।श्रीराम के वंशज मुख्यमंत्री भी हैं।श्रीराम जी ने अपने बगल का आसन दिया था।इन्होंने दरवाजे के पास स्टूल दे दिया है।   यही नहीं गुजरात मे भी इस समाज के सबसे बड़े नेता पुरुषोत्तम सिंह सोलंकी सात बार जितने के बाद राज्यमंत्री...
 बरसूंगा इस बार कह गया प्यार मूसलाधार कह गया।।...  बोला था अब साथ रहूँगा  कुछ दिन इसी गांव ठहरूँगा मेघों का थैला लटकाए रिमझिम रिमझिम गीत सुनाए मिलते है फिर यार कह गया अपना नाम बहार कह गया।।........ भूरी चादर तन पर ओढ़े दौड़ रहा था पांव सिकोड़े बोला क्यों कितने दिन तरसा गहराया फिर गरजा बरसा शीतल प्रीत फुहार कह गया जैसे अपनी हार कह गया।।...... फिर जैसे जीवन हरियाया तन हरियाया मन हरियाया मैं समझा मधुवन हरियाया वो बोला सावन हरियाया हरा भरा संसार कह गया मन भर कर आभार कह गया।।..... रूठे तो मनुहार कह गया माने तो अभिसार कह गया गालों पर पुचकार कह गया हठ कर मुझे दुलार कह गया हाथ पकड़ अधिकार कह गया मैं भी उसको प्यार कह गया।।..... सुरेशसाहनी, कानपुर
 दिल ने चाहा था जिसे प्यार करें वो ग़ज़ल और फ़रेबी निकली। अब किसी सच पे यकीं मुश्किल है उसकी हर बात जो झूठी निकली ।।SS
 यूँ मुझे टूटकर न चाह सनम। कुछ ज़माने से भी निबाह सनम।। इश्क़ का हश्र सबको है मालूम वक़्त होता है बदनिगाह सनम।। कुछ बसाये भी हैं मुहब्बत ने घर जियादा हुए तबाह सनम।। लुत्फ इसमें है दो घड़ी लेकिन उम्र भर के लिए है आह सनम।। फिर ये बन्दा भी वो मुसाफ़िर है साथ जिसके कठिन है राह सनम।। सिर्फ़ और सिर्फ़ तुझसे प्यार करूँ मुझसे होगा न ये गुनाह सनम।। यूँ भी मैं धूप का परिंदा हूँ मेरी किस्मत नहीं है छाँह सनम।। सुरेश साहनी , कानपुर
 सच के सूबे का गवर्नर कौन है। झूठ से ओहदे में बढ़कर कौन है।। मातहत जनता है यह तो साफ है मातहत सब हैं तो अफसर कौन है।। आदमी खुद को समझ कर के ख़ुदा पूछता है आज ईश्वर कौन है।। है अहम नज़रों में तेरी तख़्त तो फिर सखी से पूछ सरवर कौन है।। डूबता है सबका सूरज एक दिन है मुसलसल जो मुनव्वर कौन है।। सुरेश साहनी,कानपुर कवि और विचारक सम्पर्क- 9451545132
 इक टूटा फूटा ख़्वाब दिया। जब उसने एक गुलाब दिया।। हमने फिर भी उम्मीदें की तुमने तो साफ ज़वाब दिया।। लोगों में खूब सवाल उठे हमने ही हँस कर दाब दिया।। ये दर्द तुम्हारी नेमत है तोहफा कितना नायाब दिया।।  हमने भी तुमसे कब पूछा तुमने भी खूब हिसाब दिया।।  बढ़ती जाती है प्यास मेरी जलवों का नाम शराब दिया।। हमने तुमको महबूब कहा तुम बोले नाम ख़राब दिया।। अपनी नज़रों में गिर बैठे तुमने जो आज खिताब दिया।। सुरेश साहनी कानपुर
 किस चिंतन में डूबे हो कवि नित बनती परिभाषाओं से या जगती प्रत्याशाओं से मिटने वाली उम्मीदों से या शाश्वत अभिलाषाओं से क्या ऊब गए तृष्णाओं से या ख़ुद से ही ऊबे हो कवि..... क्यों क्षितिज निहारा करते हो मन किस पर वारा करते हो जब सभी जीतना चाहे हैं तुम दिल क्यों हारा करते हो क्यों कर अनजान बने हो तुम  घूमे सूबे सूबे हो कवि........ सुरेशसाहनी
 भाव भरा आलिंगन तुम हो। कविता का अनुगूँजन तुम हो।। आशा का उसके प्रतिफल से स्नेह स्निग्ध अनुमेलन तुम हो।। तुम प्रेयसि हो मधुर स्वप्न की तुम नयनों का मधुर स्वप्न हो तुम नर्तन का मूल भाव हो मन मयूर का नर्तन तुम हो।। सदा कल्पना में प्रस्तुत हो पर यथार्थ में ओझल हो तुम योगी के तप का खंडन तुम या कामी का चिंतन तुम हो।। हरसिंगार सी सदा सुवासित तन मन करती हो उद्वेलित हो तुम अनहद नाद सरीखी मन वीणा का वादन तुम हो।। जो भी हो भावों से होकर मेरी कविताओं में उतरो मैं साधक हूँ शब्द ब्रम्ह का नाद ब्रम्ह तुम साधन तुम हो।।
 यार तुम्हारा जाना भी दुख देता है। याद तुम्हारा आना भी दुख देता है।। मैं पारे सा बिखरा सिमटा करता है यूँ मन का भटकाना भी दुख देता है।। प्यार किसी का खोना दुख की बात तो है प्यार किसी का पाना भी दुख देता है।। पहले ख़्वाब तुम्हारे खुश कर देते थे अब ख़्वाबों का आना भी दुख देता है।। डर तो लगता है अनजानी बातों से  पर जाना पहचाना भी दुख देता है।। तुम अपने थे जो दिल मे पैबस्त हुए अपनों का चुभ जाना भी दुख देता है।। तुमने ग़म की दौलत दी एहसान किया क्या धन और खज़ाना भी दुख देता है।। हम तो तेरे कारण जान न दे पाए यूँ दुश्मन का जाना भी दुख देता है।। आये हो तकिए पर साथ रक़ीबों के कुफ्रन आग लगाना भी दुख देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर

कोरोना भोजपुरी

 कोरोना कईले बाटे परेशान सँवरु। हउवें देशवा के लोग हैरान सँवरु।। गइल अषाढ़ सवन ऋतु आइल सजना के सुधि आ सनेस ना सुनाईल एमें बरखा के बुन्नी लगे बान सँवरु।। देवरा से कइसे डिसटेन्स हम बनाई घर में ना रहीं बोलीं कहाँ चलि जाई रउवा कहतीं त दे देती परान सँवरु।।
 मौन स्वर से प्यार बोलो फिर नयन में प्यार घोलो। प्रीत का आह्वान सुनकर प्रिय! हृदय के द्वार खोलो।। कब तलक होगी प्रतीक्षा और कब तक दूँ परीक्षा याचना रत हूँ प्रणय के बन्द कोषागार खोलो।। प्रिय हृदय ..... पाप है यह कल्पना है प्यार पूजा प्रार्थना है रीति वसना क्यों बनी हो बन्धनों से रार तो लो ।। प्रिय हृदय..... लाज की प्राचीर तोड़ो मत विरह के तीर छोड़ो नेह से अन्तस् बुहारो रोष में मनुहार घोलो।। प्रिय हृदय.....

कोलोजियम

 नहीं टूटता है चक्रव्यूह/ अभिमन्यु की तरह / न जाने कितने मारे गए/ जैसे गोरख पांडेय/ होते तो लिखते/ नहीं टूटता कविता का कोलोजियम....
 उसने क्या क्या नहीं दिया कहिये। जो है उसका ही शुक्रिया कहिये।। आग पानी हवा कुदूरत सब उसने किसको मना किया कहिये।। श्याम को कुछ बुरा नहीं लगता  चोर छलिया कि कालिया कहिये।। कृष्णमय हो जगत कि राधामय  श्याम मीरा का हो लिया कहिये।। साहनी ख़ुद का क्या सुनाता है सब है मालिक की बानियाँ कहिये।। सुरेश साहनी, कानपुर