चलो बारिश में फिर से भीगते हैं।
कोई बचपन का साथी ढूंढते हैं।।
चलो फिर लाद लें कंधे पे बस्ता
पकड़ लें फिर वही मेड़ों का रस्ता
जिधर से हम घरों को लौटते थे
उन्ही रस्तों पे बचपन खोजते हैं।।
चलो फिर कागजी नावें बनाएं
चलो कुछ चींटियाँ उसमे बिठाये
अभी घुटनों तलक पानी भरा है
चलो कॉपी से पन्ने फाड़ते हैं।।
भले हम देर कितना भीगते थे
भले घर लौटने में कांपते थे
भले माँ प्यार में ही डाँटती थी
चलो बारिश में माँ को खोजते हैं।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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