क्या होगा केवल प्रमाद से

यह सोने का वक्त नहीं है।

हटो, हमारी राह न रोको

अब रुकने का वक्त नहीं है।।


कोई जन्म से दास नहीं है

कोई प्रभु का खास नहीं है

ईश्वर का प्राकट्य प्रकृति है

क्या तुमको आभास नहीं है


यूँ भी गढ़े हुए ईश्वर से

अब डरने का वक्त नहीं है।।


नियम प्रकृति के अखिल विश्व में

अब तक एक समान रहे हैं

भेदभाव या वर्ग विभाजन

कुटिल जनों ने स्वयं गढ़े हैं


आज विश्व परिवार बनाना--

है, लड़ने का वक्त नहीं है।।


कर्म योग है योग कर्म है

सामाजिकता श्रेष्ठ धर्म है

प्रकृति संतुलित रहे यथावत

मानवता का यही मर्म है


इससे भिन्न किसी चिन्तन में

अब पड़ने का वक्त नहीं है।।

सुरेशसाहनी, कानपुर

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