क्यों तुम्हे स्मृत रखें हम प्यार में।
छोड़कर तुम चल दिए मझधार में।।
तुमने यारी गांठ ली थी और से
हम भ्रमित थे व्यर्थ की मनुहार में।।
चल दिए चुपचाप आखिर किसलिए
हर्ज क्या था नेहमय तकरार में।।
हम प्रतीक्षारत हैं आ भी जाओ प्रिय
कोई सांकल भी नही हैं द्वार में।।
तुम कहीं भी हो हमें विश्वास है
लौट कर आओगे फिर परिवार में।।
घर वही है जिस जगह अपनत्व है
वरना कोई घर नही संसार में।।
सुरेश साहनी,कानपुर
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