किस चिंतन में डूबे हो कवि
नित बनती परिभाषाओं से
या जगती प्रत्याशाओं से
मिटने वाली उम्मीदों से
या शाश्वत अभिलाषाओं से
क्या ऊब गए तृष्णाओं से
या ख़ुद से ही ऊबे हो कवि.....
क्यों क्षितिज निहारा करते हो
मन किस पर वारा करते हो
जब सभी जीतना चाहे हैं
तुम दिल क्यों हारा करते हो
क्यों कर अनजान बने हो तुम
घूमे सूबे सूबे हो कवि........
सुरेशसाहनी
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