किसी का दामन बचा रहा हूँ।
कि हाथ अपने जला रहा हूँ।।
अज़ल से अपना ही मुन्तज़िर हूँ
अज़ल से ख़ुद को बुला रहा हूं।।
अगरचे रूठा हूँ ज़िन्दगी से
उसे क्यों इतना मना रहा हूँ।।
अजीब हालत है आशिक़ी की
खुशी से आँसू बहा रहा हूँ।।
ये तिश्नगी और बढ़ रही है
कि प्यास जितनी बुझा रहा हूँ।।
न पूछ दीवानगी का आलम
मैं अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ।।
जो इश्क़ सदियों से चल रहा है
उसी के किस्से सुना रहा हूँ।।
अज़ल- सृष्टि का आरम्भ
मुन्तज़िर- प्रतीक्षारत
अगरचे- यदि
तिश्नगी- प्यास
सुरेश साहनी, कानपुर
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