कोई माने या ना माने क्या फर्क पड़ता है।तमाम मठाधीश हैं दूसरे की वाल पर आने में शरमाते हैं।एक ने अभी कुछ दिन पहले पोस्ट किया मैंने तमाम कवि/शायर, लिखने वाले छोटे/बड़े कवियों को अनफ्रेंड किया है। अब उनके बड़े होने के भ्रम सॉरी अहम का क्या किया जाय।हमें शरद जोशी जी की बात ध्यान रहती है कि, "लिखते जाईये आपका गॉड फादर कोई नहीं पर लाल डिब्बा तो है। लिख लिख कर लाल डिब्बे में डालते जाईये, एक दिन पहचान बन जाएगी।;
आज लाल डिब्बा नहीं है पर ईमेल है,ब्लॉग्स हैं ,फेसबुक है।पर्याप्त है। फिर कवि स्वान्तःसुखाय लिखता है।कवि स्थितिप्रज्ञ है।
वैसे भी हिंदी पाठकों की स्थिति अलग है।उसके मूड की बात है। वह वो पढ़ना चाहता है जो उसे नहीं उपलब्ध है।सुलभ को साहित्य नहीं मानना उसकी बीमारी है। वो सीता में कमी निकाल कर राम को जस्टिफाइ कर सकता है।रावण को सच्चरित्र साबित कर सकता है। सनी लियोनी को आदर्श मान सकता है।फिर एक्सेप्ट तो तुलसीदास भी अपने समय मे नहीं रहे होंगे।आज का कवि किस खेत की मूली है।
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