दूसरों के लिए जो न बहा, वो लहू क्या है ...

 

हावड़ा में चेंगाईल नाम का एक छोटा सा उपनगर है। उसमें एक बस्ती है मोल्लापाड़ा। वहाँ रहने वाले सिराजुल इस्लाम और उसकी पत्नी आएशा बेगम उस वक्त भारी मुश्किल में पड़ गए जब आएशा बेगम को विषधर साँप ने काट लिया। एक तो बारिश का मौसम ऊपर से दूसरा कहर कि आएशा साढ़े सात महीने की अंत:सत्वा। जरा आकलन कीजिये, कहाँ ईद के आने के इंतजार में दिन गिन रहे थे, कहाँ साँप ने ऐन मौके पर गेम चेंजर का रोल प्ले कर लिया! फिर उसके ऊपर और कहर कि सीमित सुविधा वाले स्थानीय अस्पताल ने हाथ खड़े कर दिये। स्थिति विकट ही थी, उपचार की जगह अपचार होना ही होता, परिवार वालों ने गाड़ी दौड़ाया कोलकाता मेडिकल कॉलेज, बंगाल का सबसे बड़ा सरकारी मेडिकल प्रतिष्ठान। समझना आसान ही है, निम्न आय वर्ग का यह परिवार भी कुछ आशंका, कुछ डरा सा ही इस सरकारी अस्पताल में आया होगा, कि और कोई चारा न था। इसी बीच चौबीस घंटे गुजर गए। हालत और गंभीर हो गई थी।


डॉक्टरों ने परीक्षण से पाया, दोनों किडनी ने लगभग काम बंद कर ही दिया था, यूरीनेरी ट्रैक एफेक्टेड, यूरीन पास होना बंद, शरीर पूर्णत: फूला हुआ, और शरीर में जगह-जगह गोल-गोल दाग। यानि विषक्रिया के सारे लक्षण मौजूद, कुछ ही फासला पर मौत। चूंकि बेबी भी है तो high antidote नहीं दिया जा सकता। high antidote मतलब बेबी की जान से हाथ धोना। फिर उपाय?


यही से शुरू होती है चुनौती को स्वीकारने के ललकार। ज़िम्मेदारी मिली medicine department के डॉक्टर अरुनांशु तालुकदार को। कुछ अभिनव करना था। एक टीम बनाई गई, फैसले लिए गए और काम शुरू। सबसे पहले यह तय किया गया कि बच्चा को premature birth कराया जाय। ताकि जल्द ही माँ का उपचार शुरू किया जा सके। अत: labour pain जगाने के लिए दवाई दिये गए और परिसीमित जोखिम उठाकर एक under weight baby को सफलता पूर्वक जन्म दिलाया गया। पहला चरण सफल हुआ।


अब दूसरा चरण, स्पष्टत: और भी कठिन और जोखिम भरा काम था। विषक्रिया शरीर पर प्रभाव डाल चुका था, रक्त भी द्रुत नष्ट हो रहा था। fresh frozen plasma की विपुल मात्रा में आवश्यकता थी। यह मात्रा इतनी अधिक थी कि blood bank से भी आपूर्ति करना, वह भी तड़ी-घड़ी, नामुमकिन ही था। फिर व्यवधान, यमराज मानो द्वार पर ही प्रतीक्षारत। वक्त निकलता जाय! जल्द ही खून जरूरी, वह भी बेहिसाब। भरोसा टूटने लगा था।


इसी समय 40 जूनियर डॉक्टरों के दल देवदूत बन आगे आ गए, और बारी-बारी से जरूरत के मुताबिक खून donate करने लगे। एक नहीं, दो नहीं, 40 doctors! दिन रात उपलब्ध! जब जरूरत पड़े, कल्पना कीजिये कितना खून लगा होगा! इसी तरह चला यह सिलसिला, लगभग तीन सप्ताह। सोचिए, तीन सप्ताह! किस तरह इस चैलेंज को इन डाक्टरों ने स्वीकारा होगा। दिन रात एक किया होगा।


आखिर में वह सुबह भी आई। डाक्टरों ने माँ और baby को पूरी तरह से खतरे से बाहर डिक्लियर किया। आएशा स्वस्थ होकर अपने baby को ले पति के साथ घर को लौट गई। जाते हुए सिराजुल रूँधे गले से कह गया - 'शायद पैसे से बिल चुका दूँ मगर उनलोगों ने तो हमें खून के कर्ज से बांध दिया, इसे कैसे चुका पाऊँगा।' आएशा ने भी उसी लय में कहा -'अभी तक जीवित हूँ, संतान का मुख देख पाई ये उन डॉक्टरों के दया से ही संभव हुआ।' टीम लीडर डॉक्टर अरुनांशु तालुकदार ने गरिमा के अनुरूप टीम को ही इसका श्रेय दिया- 'हर डिपार्टमेन्ट के डॉक्टर्स ने कंधा से कंधा मिलाकर इस अभियान को सफल बनाया। खासकर उन जूनियर्स को सलाम। टीम की जय।'


सोचता हूँ कहीं आयतों के न कह पाने से खून की होली खेली गई, गला रेता गया, प्राण हर लिए गए। कहीं चालीस डॉक्टरों ने प्राण बचाने के लिए निरंतर खून दिया, जी जान लगाये और आखिर यमराज से छीनकर जिंदगी का तोहफा किसी को दिया। एक खास बात, यह सरकारी अस्पताल था।


रंग तो वही लाल, पर खून भी क्या खेल खेलता है साहब!


साभार - आनंद बाजार पत्रिका 06/07/2016


- Gourang Gourang जी की वाल से संपादित

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