बहा रहे हो दीन जनों की ख़ातिर क्यों घड़ियाली आँसू।

जो ग्लिसरीन लगाकर तुमने बना लिए रूमाली आँसू।।


उसकी नज़रों में शायद हो मेरे आँसू के कुछ मानी

जिसकी आंखों से टपकाये मैंने ख़्वाबख़याली आँसू।।


मातम पुर्सी में आये हो दौलत भी मानी रखती है

माना उनसे प्रेम बहुत है किन्तु बहाये खाली आँसू।।

 

मुझे पता है पाँच बरस जो दिखते नहीं बुलाने पर भी

यही चुनाओं में अक्सर हो जाते हैं टकसाली आँसू।।


अलग अलग रोने के ढब हैं अलग ठठा कर हंसने के भी

बहुत कठिन है खुद पर हंसना बहुत सरल हैं जाली आँसू।।


पैसे वाले हँस देते हैं अक्सर निर्धन के रोने पर

उनके अपने कब रोते हैं रोते मिले रुदाली आँसू।।


जब गरीब की हाय लगी है बड़े बड़े बर्बाद हुए हैं

विक्रम बन ढोती हैं उनकी सन्ततियाँ बेताली आँसू।।


सुरेश साहनी कानपुर

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