यार शीरी जुबान अब भी है। धूप में सायबान अब भी है।। उनको अब भी यक़ीन है मुझपे दिल को इसका गुमान अब भी है।। एक दिन लौट कर वो आएगा मुझको ये इत्मीनान अब भी है।। कौन कहता है अब नही होगा आख़िरी इम्तेहान अब भी है।। आज बीमार तो नहीं आते दरदेदिल की दुकान अब भी है।।
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Showing posts from February, 2023
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तुम्हे मालूम है किसकी कमी है। तुम्हारा आ ही जाना लाज़मी है।। मेरी आँखों में आँसू है ये सच है तुम्हे क्या लग रहा यूँ ही नमी है।। यहाँ मौसम गुलाबी हो गया है तो फिर क्यों बर्फ़ रिश्तों में जमी है।। हमारा इश्क़ है क़ायम अज़ल से ये मत समझो कि चाहत मौसमी है।। तेरी आँखों में भी है लाल डोरे तुम्हारा जिस्म बेशक गंदुमी है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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जो आरोप लगाये तुमने मैने उसे नकारा कब है बस इतना बतलाती जाओ तुमने मुझे पुकारा कब है कुछ क्षण स्नेह सुधा देकर के मेरे प्राण ऊबारे कब हैं अपनी अलकावलि में उलझे मेरे केश सँवारे कब हैं प्रणयाकुल नैनो से तुमने मेरी ओर निहारा कब है मुझे लगा मैं पूर्ण काम हूँ तन मन धन सब तुमको देकर तुम्हें लगा हो किंचित कोई दे सकता है मुझसे बेहतर इस दुविधा में सहज प्राप्त फल मैं था यह स्वीकारा कब है।।
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कर गया अपना पराया फिर कोई। काम आता पर न आया फिर कोई।। वज़्म में है इक बला की रोशनी बिजलियों ने घर जलाया फिर कोई।। अपने दिल का टूटना फिर तय हुआ प्यार से दिल मे समाया फिर कोई।। इश्क़ को निस्बत है पहले यार से हुस्न ने अपना बनाया फिर कोई।। हॅंस रहे हैं लोग कुछ मुंह फेर कर ज़ख़्म शायद है नुमाया फिर कोई।। हर तरफ खामोशियों का शोर है अश्क़ का सैलाब आया फिर कोई।। फिर वफ़ा के नाम पर मातम मना इश्क़ पर ईमान लाया फिर कोई।। सुरेश साहनी,कानपुर
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केवल लिखना लिखते जाना भाषा बन्ध न ताना बाना...... केवल लिखना कूड़ा करकट उतरन कतरन प्रणयाकुलताओं का उगलन कुछ उच्छ्रंखल कुछ मनमाना....केवल लिखना सदा वर्जनाओं का लंघन जैसे वर्ष-अंत तक फागुन मस्तों का मदमाते जाना.....केवल लिखना कवियत्री-कवियों का मेला अगणित कविताओं का रेला केवल लाइक दर्ज कराना....केवल लिखना मतलब की भी बेमतलब भी होती नहीं निरर्थक तब भी करतब है मोती चुन पाना.....केवल लिखना क्या कुछ पाना ही है हासिल कदम कदम पर है एक मंजिल क्या है खोना क्या है पाना....केवल लिखना सुरेशसाहनी, कानपुर
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फूलों की कांटों से यारी जान गया। शायद वो मेरी दुश्वारी जान गया।। क्या मैं इश्क़ मुहब्बत वाला दिखता हूँ वो कैसे दिल की बीमारी जान गया।। जाल में फंस सकता हूँ मैं आसानी से जंगल का हर एक शिकारी जान गया।। दिल का दर्द कहा था इक चारागर से और शहर मेरी लाचारी जान गया।। बेशक़ वो मेरी फ़िक़्रों से वाकिफ है क्या मैं भी उसकी ऐयारी जान गया।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दिन तो आएंगे गुज़र जाएंगे। तय करें आप किधर जाएंगे।। हुस्न कुछ और निखर उट्ठेगा इश्क़ कर लीजै सँवर जाएंगे।। तंग आयें हैं निगहबानी से अब सरेआम उधर जाएंगे।। अब ज़माने को अदूँ होने दो यूँ ज़माने से न डर जाएंगे।। आज तूफाँ को भी किश्ती कर के पार जाना है अगर जाएंगे।। प्यार का हाथ पकड़ कर चलिए फूल राहों में बिखर जायेंगे।। प्यार वो किश्ती है जो लेके अदीब हर समंदर में उतर जाएंगे।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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आपकी वाह वाह गिरवी है। हर हँसी हर कराह गिरवी है।। अपनी मर्जी से रो न दीजेगा जबकि नाला ओ आह गिरवी है।। आप की कोई हैसियत है क्या आज जब बादशाह गिरवी है।। सारी दुनिया है ज़र की मुट्ठी में हर सफ़ेदो सियाह गिरवी है।। कौन से दर प हाजिरी देगा आज हर ख़ानक़ाह गिरवी है।। आज लहरें सहम के उठती हैं हर लहर की उछाह गिरवी है।। मिल गए हो तो वर्जना कैसी किसने बोला गुनाह गिरवी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जिसको कहते हैं ग़ज़लगोई है। मुद्दतों छुप के कलम रोई है।। ये मुहब्बत है किसानी जिसमें मैंने अश्कों की फसल बोई है।। मैं तो बैठा हूँ लुटाकर दुनिया अपनी हस्ती ही नहीं खोई है।। मैंने तुर्बत में गिने हैं तारे ज़ीस्त मरकर भी कहाँ सोई हैं।। लाश तक अपनी उठायी मैने ज़िन्दगी किसने मेरी ढोई है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या यही इक्कीसवीं वाली सदी है। सन् सतहत्तर से भयानक त्रासदी है।। हिन्दू मुस्लिम सूद बामन गिन के बोलो इनमें हिंदुस्तान कितने फीसदी है।। तुम हिमालय से समंदर घूम आओ तब बताना कौन सी गंगा नदी है।। अब कन्हैया खुद मुसीबत में घिरा है देखकर सहमी हुयी सी द्रोपदी है।। मुल्क अपना विश्वगुरु होने लगा है सुन के अब तनमन में होती गुदगुदी है ।। आजकल सच कौन सुनना चाहता है हमने सकुचाते हुए आवाज दी है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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बदलते वक्त में ठहरे हुए हो। वफाओं में अगर जकड़े हुए हो।। ये रिश्ते सर्द होते जा रहे हैं चलो बाहर कहीं ठिठुरे हुए हो।। तुम्हे बिंदास होना चाहिए था यहाँ तुम खुद में ही डूबे हुए हो ।। वो यादें नाग बनकर डस रही है जिन्हें तुम आजतक पाले हुए हो।। तुम्हे किसने कहा शीशे में उतरो अगर तुम इस कदर टूटे हुए हो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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किसे है फ़िक्र नँगे हो गए हैं। वो बिक कर और महंगे हो गए हैं।। वो दुनिया में मुहब्बत बेचते हैं इसी से कितने दंगे हो गए हैं।। हमारे जख़्म कैसे हैं न पूछो के हम दिखने में चंगे हो गए हैं।। ये पापी पेट क्या क्या ना करा दे न सोचो हम अहंगे हो गए हैं।। दुआओं में तुम्हे माँगा था इतना फितरतन भीखमंगे हो गए हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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रात सँवारी दिवस सजाये सुबहो-शाम दिया है। मेरे प्रिय ने मुझको अपना आठो याम दिया है।। अपना घर आंगन छोड़ा है मेरे घर की खातिर मुश्किल तो है धरा छोड़ ना इक अम्बर की खातिर मन के हारे तन को उसने सुख अभिराम दिया है।। मेरे प्रिय ने मुझको अपना आठो याम दिया है।। मिली विजय श्री नेह भाव से हार गले मे पाकर घर मन्दिर कर डाला उसने मन मन्दिर में आकर एक पतित को जैसे प्रभु ने अपना धाम दिया है।। मेरे प्रिय ने मुझको अपना आठो याम दिया है।। मुझ जैसे नीरस को उसने सबरस दे डाला है मैं इस योग्य नहीं था मुझको सरवस दे डाला है मानो देवी ने कामी को फल निष्काम दिया है।। मेरे प्रिय ने मुझको अपना आठो याम दिया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरी कमियों का मेरी रुसवाईयों का ज़िक्र कर। कब कहा मैंने मेरी अच्छाईयों का ज़िक्र कर।। रोशनी के ज़िक्र से तुझको घुटन होती है तो तीरगी का ज़िक्र कर परछाइयों का ज़िक्र कर।। धूल धुन्ध धुंवा शराबो-शोर से बाहर निकल गांव की आबोहवा पुरवाईयों का ज़िक्र कर।। प्यार में मत ज़िक्र कर तू पब या डिस्कोथेक के पनघटों को याद कर अमराइयों का ज़िक्र कर।। आज भी नज़रें बिछी हैं जो कि तेरी राह में ज़िक्र उन आंखों का उन बीनाईयों का ज़िक्र कर।। पहले हिरसोहवस के गिरदाब से बाहर निकल शौक़ से तब हुस्न की आराईयों का ज़िक्र कर।। ज़िक्र करना है तो अपनी उल्फतों का कर अदीब क्या ज़रूरी है कि उन हरजाइयों का ज़िक्र कर।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर
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मैं कवि कैसे हो सकता हूँ शब्दो की चाशनी बनाकर या भावों का तड़का देकर बाजारों में बिक सकता हूँ।। भाषा संस्कृतनिष्ठ बनाकर अरबी-उर्दू वर्क सजाकर अच्छा सेलर बन सकता हूँ।। इधर उधर से जोड़ तोड़कर खींच खाँच कर नोच नाच कर मैं मंचो पर तन सकता हूँ।। बेसिरपैर कहानी कहकर भाषा में सस्तापन लाकर क्या मैं कवि कहला सकता हूँ।।
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दल आते हैं जाते हैं सत्तायें बनती हैं, गिरती हैं सत्ता के बदलते ही बढ़ जाती हैं उम्मीदें बढ़ जाती है आंखों की चमक कि घटेगी अराजकता, बेरोजगारी, महंगाई,ज़रूरी जिंसों के दाम,तमाम सारी बंदिशें और ढेर सारे टैक्सेस वगैरह वगैरह और यह आशा भी कि अब अपने लोगों का शासन है अब फलनवे ऐंठ के नहीं चलेंगे लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते हैं उन्हें लगने लगता है ऐ स्साला ! हम तो ठगा गए और फिर यह सोच कर सब्र करते हैं चलो गोदी के लईका के दू लात भी अखरता नहीं है और धीरे धीरे उनकी जाति ,उनका धरम, उनके राज पर खतरा बढ़ता जाता है खतरा जो उनके नेता जी बताते हैं और फिर बढ़ती जाती है खाई, आपस की दूरी, नागरिकता की परतें ,डर, आश्वासन,नफ़रतें घटती जाती है सहूलियतें, जेब की गर्मी,आपस का लगाव, सद्भाव ,भाईचारा और मरती जाती हैं , हसरतें ,उम्मीदें , कला संस्कृति और एक देश की नागरिकता का सुखद एहसास।
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ज़ीस्त किसके वास्ते बेकल रही है कुछ तो कह। ख़ामुशी हद से ज़ियादा खल रही है कुछ तो कह।। ज़िन्दगी को हम किधर ले जा रहे हैं क्या कहें ज़िन्दगी हमको कहाँ ले चल रही है कुछ तो कह।। आदतन एक खण्डहर होने को आमादा है तन उम्र भी अपनी मुसलसल ढल रही है कुछ तो कह।। और कितनी देर करवाएगी अपना इन्तेज़ार मोम के जैसे जवानी गल रही है कुछ तो कह।। तेरी चाहत की वजह से नींद भी जाती रही कितने ख़्वाबों का मेरे मक़तल रही है कुछ तो कह।। सुरेशसाहनी
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खुद को बरबाद कर रहे होंगे। तुम मुझे याद कर रहे होगे।। मंच से गीत मेरे चोरी से पढ़ के दिल शाद कर रहे होगे।। दिल के बंधन में बांध कर मुझको खुद को आज़ाद कर रहे होंगे।। एक शायर का मर्सिया कहकर ज़ीस्त आबाद कर रहे होगे।। कैसे कह दे ग़ज़ल चुराते हो कोई इज़ाद कर रहे होगे।। देख मुझको नज़र रब से फरियाद कर रहे होगे।।
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मां माथा छूकर कहती थी ,मेरा बेटा कैसा है? चेहरा देख बता देती थी बेटा कबसे भूखा है।। सुबह बता देती थी बेटा सारी रात नही सोया। उसे पता था बेटे का दिल खुश है या रोया धोया।। घर से बाहर जब निकलो तो खूब बलैया लेती थी। घर लौटूँ तो सबसे पहले मां अगवानी करती थी। मेरे बढ़ने या पढ़ने में आधी मेहनत माँ की है। मेरी हर उपलब्धि समझ लो देन हमारी माँ की है।। माँ अनपढ़ थी पर मेरे मन की भाषा पढ़ लेती थी। मांगो रोटी एक किन्तु वह दो रोटी दे देती थी।। अब भी घर या बाहर जब भी आना जाना होता है। माँ के आशीषों का सर पर ताना बाना होता है।।
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ख़त जो मैंने सम्हाल रक्खे हैं। मेरे माज़ी के हाल रक्खे हैं।। यूँ तो उनके जवाब थे लेकिन बन के जैसे सवाल रक्खे हैं।। एक एक ख़त को सौ दफा पढना ख़त नही ख़ुद कमाल रक्खें हैं।। ख़त नहीं हैं वो कस्र-ए-दिल में दीप यादों के बाल रक्खे हैं।। उनके सोलह बरस से छब्बीस तक हमने तह तह के साल रक्खे हैं।। दिन वो फिर लौट कर न आएंगे हमने जिनके मिसाल रक्खे हैं।। मेरी नज़्में भी हैं मेरी ख़ातिर खूब जाने- बवाल रक्खे हैं।। इश्क़,दुनिया के ग़म तेरी यादें दिल ने सब रोग पाल रक्खे हैं।। उनको अब भी मज़ा नहीं आया यां कलेजा निकाल रक्खे हैं।। वो कहाँ तक उलाहने देगा पास हम भी मलाल रक्खे हैं।। कितना बेरंग है मेरा फागुन जबकि रंगों -गुलाल रक्खे हैं।। देख जाओ ये शबनमी मौसम आज भी तर रुमाल रक्खे हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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उन्हें पासा पलट जाने का डर है। उन्हें ख़ुद के सिमट जाने का डर है।। मेरी तारीफ वो क्यों कर करेंगे उन्हें ख़ुद के निपट जाने का डर है।। वो क़द्दावर है शायद इस वजह से उन्हें कद के भी घट जाने का डर है।। हमें अपनों में शामिल क्या करेंगे उन्हें अपने ही छंट जाने का डर है।। उन्हें नाइत्तेफाकी खल रही है जिन्हें सत्ता से हट जाने का डर है।।
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वो ख्यालों में आज आये फिर। ज़ख़्म सीने के जगमगाये फिर।। अपने माज़ी को हमने फिर देखा जुल्म गिन गिन के याद आये फिर।। आज फिर तीरगी ने घेर लिया हमने ग़म के दिये जलाये फिर।। दिल जहाँ दर्द से कराह उठा हम वहीं ख़ुद पे मुस्कुराए फिर।। कितनी मुश्किल से जोड़ पाए हैं डर तो है दिल न टूट जाये फिर।। जो हमें हर तरह से भूल गया याद आ आ के क्यों सताए फिर।। जानोदिल सब तो दे दिया उनको और क्या है कि लूट जाए फिर।। आज भी उस पे एतबार नहीं कौन अब उसको आजमाए फिर।। एक उसके क़रीब आने से कितने अपने हुए पराए फिर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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तस्वीरों में देख के खुश हो लेते हैं सरसों शहरों में कैसे दिख सकती है। जिनसे आनंदित हो जाता है तनमन वो चीजें गांवों ही में मिल सकती है। शहरों में गमले वह भी आधे सूखे उनमे भी आधे काँटों के वंशज हैं। बौने कर के बड़े बड़े पेड़ों के तन कमरों में रख देते अपने देशज हैं।। तन से देशी मन विलायती कपड़ेभी जिन पर मिटटी तो दूर धूल का नाम न हो। गांवों से रिश्तेदारी से खेती बाड़ी से संपर्क तनिक न रखते जब तक काम न हो।।
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मेरी आँखों मे जग सारा देख लिया। उसका घर संसार हमारा देख लिया।। जगह बना ली मेरे दिल के कोने में कैसे उसने दिल का द्वारा देख लिया।। उसने अपनी झील सरीखी आंखों में मेरे जैसा एक शिकारा देख लिया।। मैं ख़ुद में डूबा रहता हूँ मौजों ने कैसे मुझ में एक किनारा देख लिया।। फिर भी मैं उन आंखों का सैदाई हूँ जिन ने मुझमें एक सितारा देख लिया।। सुरेश साहनी
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रुक्नो-अरकान हो गए हो क्या। वज़्म की शान हो गए हो क्या।। अपने दिल से हमें निकाल दिया फिर मुसलमान हो गए हो क्या।। एक लाठी से सबको हाँकोगे बढ़ के भगवान हो गए क्या।। आदमियत से इस क़दर नफरत इब्ने- शैतान हो गये हो क्या।। यूँ तकल्लुफ़ की इन्तेहा करना घर मे मेहमान हो गए हो क्या।। हमको तिशना ही मार डालोगे माहे रमज़ान हो गए हो क्या।। जाओ जाने की धमकियां मत दो तुम मेरी जान हो गए हो क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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खाक़ करते कोई दवा यारब। काम आती अगर दुआ यारब।। हुस्न क़ातिल कहाँ हुआ इतना जितनी क़ातिल थी वो अदा यारब।। दर्दे दिल से निजात दे अब तक कोई मरहम नहीं बना यारब।। इश्क़ होता है जानलेवा भी ये नहीं था हमें पता यारब।। कुछ तो डर होगा इब्ने आदम से छुप के रहता है जो ख़ुदा यारब।। यार वो वक़्त का सिकन्दर था एक दिन हो गया फना यारब।। कल ज़माना हमें भी ढूंढेगा हम भी हो जाएंगे हवा यारब।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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वो बन्दों को रब लिखता है। कुछ भी कहो गज़ब लिखता है।। करता है बेढब सी बातें ग़ज़लें भी बेढब लिखता है।। सब कुछ लिख देता है लेकिन कैसे इतना सब लिखता है।। उसके दुश्मन बढ़ जाते हैं वो दिल से जब जब लिखता है।। शायर है या कोई मदारी हर्फ़ नहीं करतब लिखता है।। कितना तन्हा होता है जब वो सच को मजहब लिखता है।। अपने कद पर शक है उसको इस ख़ातिर मनसब लिखता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरे ख़्याल में आया यदि माँ गंगा मुझसे अपनी पीड़ा कैसे व्यक्त करती। कैसे कहती। पढ़ें-- दौड़ी भागी गिरते पड़ते आती हूँ। बाधाओं से लड़ते लड़ते आती हूँ।। इतनी मैली कैसे हूँ कुछ सोचा है तुम जैसों के कलिमल धोते आती हूँ।। बीच सफर में साँसे टूटा करती है हिम्मत करते सांस सँजोते आती हूँ।। पर्वत से सागर की लम्बी दूरी है शिव से अधिक हलाहल पीते आती हूँ।। जबकि सागर में मिलकर खो जाना है जाने क्यों पहचान बचाते आती हूँ।। Suresh sahani
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यूँ बिगाड़ी अपनी किस्मत हाय रे!!!! तोड़ डाली बंदिशे औ दायरे।। मेरी खुशियाँ रास्ते में बँट गयी उम्र फिर भी जैसे तैसे कट गयी और बाक़ी भी यूँ ही कट जाए रे। पास होकर भी कहाँ हम पास हैं हर घडी पतझड़ कहाँ मधुमास है और अब पतझर ही मन को भाए रे! कब तलक झीनी चदरिया ओढ़ते प्रेम की आदत कहाँ तक छोड़ते तन तम्बूरा तार टूटे जाए रे।। राह तकते नैन कोटर में बसे देह लेकर अस्थियों में जा धंसे निपट निष्ठुर किन्तु तुम ना आये रे।। रात थक कर चांदनी में सो गयी चांदनी भी भोर होते खो गयी तुम कहाँ हो कोई तो बतलाए रे!!!
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अधर अधर पर गीत लिख गया। श्वास श्वास संगीत लिख गया।। मन ने मन भर मन से खेला मनभावन मनमीत लिख गया।। ऋतु राजा का ऐसा शासन टूट गए सारे अनुशासन कहाँ वर्जना रह जाती जब मदमाते इठलाते यौवन शिथिल हुए लज्जा के बन्धन हृदय हार कर जीत लिख गया।। बचपन जैसे शावक छौने गुड्डे गुड़िया खेल खिलौने यौवन जैसे मृग माया में भटका इस कोने उस कोने वर्धापन भविष्य को त्रुटिवश स्मृति धुन्ध अतीत लिख गया।। सुरेश साहनी,कानपुर
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तुम्हारा यूँ मचलना ठीक है क्या। जवानी का फिसलना ठीक है क्या।। झिझकती उन गुलों की डालियों में नज़ाक़त से टहलना ठीक है क्या।। निगाहें हैं तुम्हारी क़ातिलाना अयां होकर निकलना ठीक है क्या।। तेरी आँखों से छलके है समंदर मेरे शीशे में ढलना ठीक है क्या।। चलो माना नदी सी चंचला हो किनारों से उबलना ठीक है क्या।। अगर मैं भी बहकता हूँ तो रोको मेरा गिर कर सम्हलना ठीक है क्या।। तो आओ इश्क़ का इज़हार कर लो मुहूरत का बदलना ठीक है क्या।। रक़ाबत में इज़ाफ़ा हो गया है हमारा साथ चलना ठीक है क्या।। तेरी उम्मीद कैसे छोड़ दें हम उम्मीदों का कुचलना ठीक है क्या।। चले जाते हो यूँ दामन झटककर हमारा हाथ मलना ठीक है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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रक्स करने के कुछ बहाने दे। ज़िन्दगी साथ गुनगुनाने दे।। कुछ तो मेरा भरम बनाये रख आजमाऊँ तो आजमाने दे।। फूल उम्मीद कर के आये हैं अपनी जुल्फों में घर बनाने दे।। प्यार में साएबां मिले ना मिले अपनी पलकों के शामियाने दे।। बेख़ुदी इश्क़ की ज़रूरत है लड़खड़ाऊं तो लड़खड़ाने दे।। तीरगी ख़ुद पनाह मांगेगी एक जुगनू तो जगमगाने दे।। जुल्म को इश्तेहार से डर है ज़ख्म दीवार पर सजाने दे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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डर लगता है सिर्फ इस लिए डर के आगे जीत छुपी है। डर लगता है सिर्फ इसलिए हाँ यह जालिम कायर भी है।। डर लगता है इसे कलम से इसे कलम से डर लगता है। डर लगता है इसे अमन के हर परचम से डर लगता है।। डर है इसको खुद कहता है इसका मज़हब खतरे में है। ये डरता है समझ रहा है इसका मनसब खतरे में है।। इसको डर है इसीलिए यह आवाजों को दबा रहा है। बेशक़ यह डर कर भागेगा आज हमें जो डरा रहा है।। सुरेश साहनी , कानपुर
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शासन में आसीन हैं अमीचन्द जयचंद। एक निरंकुश है अगर दूजा है मतिमन्द।। दूजा है मतिमन्द साथ सेठन का दल्ला। खाली करी दुकान लुटा डाला सब गल्ला।। कह सुरेश कविराय नित्य देता है भाषन। बेच दिया सब देश बता कर जीरो शासन।। फिर किसान भी अडिग हैं शासन भी मुंहजोर। प्रजातंत्र भी हो रहा दिन पर दिन कमजोर।। दिन पर दिन कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था। दिन प्रतिदिन मजबूत हो रही धन की सत्ता।। कह सुरेश कविराय पकड़ कर बैठे है सिर। क्या अच्छे दिन कभी लौट कर आएंगे फिर।। जन गण मन क्यों है दुखी क्यों इतनी गम्भीर। विषम परिस्थिति देश की कुछ तो रक्खे धीर। कुछ तो रक्खे धीर भले दिन भी आएंगे। काग जायेंगे भाग हँस मोती खाएंगे।। कह सुरेश कविराय मिले जो लीजै राशन। संविधान सम्मत मिलकर गायें जन गण मन।। सुरेश साहनी, कानपुर #जयकिसान
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बात इतने से बन न पाई तो। जीस्त फिर भी न मुस्कुराई तो।। हम कहीं और दिल लगा तो लें पर मुहब्बत न रास आई तो।। उनसे बिछुड़े तो होठ सी लेंगे पर कहीं आँख डबडबाई तो।। हो शहीदों में नाम अपना भी ज़िन्दगी प्यार में लुटाई तो।। फिर नशेमन बना के क्या होगा अपनी किस्मत में है गदाई तो।। उस ख़ुदा को सलाम कहिएगा है वहाँ तक अगर रसाई तो ।। क्यों बतायें अदीब अनपढ़ है आपने भी हँसी उड़ाई तो।। गदाई/ फ़कीरी रसाई/सम्बन्ध ,पहुँच सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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कब कहा तुम उदास हो जाओ। बस मेरे ग़मशनास हो जाओ।। दूरियां दूरियां बढ़ाती हैं पास हो और पास हो जाओ।। तुम हो गोया बहार फागुन की खिल उठे मन-पलाश हो जाओ।। इन फ़िज़ाओं की मान्दगी जाये तुम जो अहले-उजास हो जाओ।। तिश्नगी बेहिसाब है अपनी होठ मैं तुम गिलास हो जाओ।। मैं तुम्हारा हिज़ाब बन जाऊं तुम हमारा लिबास हो जाओ।। सुरेशसाहनी
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ख़्वाब इतना सज़ा नहीं पाए। दिल की दुनिया बसा नहीं पाए।। ग़म की दौलत तो ख़ूब है लेकिन और कुछ भी कमा नहीं पाए।। दर्दे-दिल तो दबा लिया हमने अश्क फिर भी छिपा नहीं पाए।। उसने पूछा था आप कैसे हैं हाल हम ही बता नहीं पाए।। हाथ मलकर कहा सितमगर ने इसको जी भर सता नहीं पाए।। चार कंधों का कर्ज है हम पर हम जो खुद को उठा नहीं पाए।। अपने तकिए पे आके खुश हैं हम जीते जी घर बना नहीं पाए।। सुरेश साहनी, कानपुर
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साफदामन हैं माहताब कई। इश्क़ वाले भी हैं नवाब कई।। हम फ़कीरों के दर नहीं बेशक़ घर ख़ुदा के भी हैं ख़राब कई।। आपने मुस्कुरा दिया होगा खिल गए हैं यहाँ गुलाब कई।। इक तुम्हीं लाजवाब हो जानम वरना हर शय के हैं जवाब कई।। हम तुम्हें पाके मुतमईन रहे लोग करते हैं इंतेख़ाब कई।। इक दफा वस्ल तो मुकम्मल हो तुमसे लेने भी हैं हिसाब कई।। तुम जो आओगे तीरगी में भी झिलमिलाएंगे आफताब कई।। सुरेश साहनी, कानपुर (प्रेम चतुर्दशी की रचनाएं)
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बताओ कौन सी हद पार कर लें। ख़्याल आया है तुमसे प्यार कर लें।। खिले हैं फूल हरसू हैं बहारें चलो हम तुम मिलें अभिसार कर लें।। तुम्हें रुसवाईयों का डर न हो तो तुम्हारे ख़त को हम अख़बार कर लें।। ज़माना तो अज़ल से ही अदूँ हैं अगर तुम साथ दो यलगार कर लें।। सज़ा दे दो तुम्हें तस्कीन हो तो कहो क्या क्या खता इक़रार कर लें।। मुहब्बत है अगर दरिया ए आतिश कहो तो यह नदी भी पार कर लें।। अगर आओ हमारा हाल लेने तो ख़ुद को आपका बीमार कर लें।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर 9451545132
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परमात्मा रक्षा करो रक्षा करो रक्षा करो मूर्ति तुम्हारी नहीं जानता कैसे हो तुम मैं नहीं जानता अगर तुम कहीं हो तो संकेत दो मुझे कुछ ही करने का आदेश दो मेरे लिए कुछ तो करो।। सूरज औ चंदा में तेरी गति हैं स्वासों में तेरी ही पुनरावृति प्राणों में तेरा ही आभास है तू ही धरा वायु आकाश है यह जानने को ज्ञान दो।।
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गैरों से शिकायत क्या करते। अपनों से अदावत क्या करते।। दुनिया भी अपनी रौ में रही दुनिया से मुहब्बत क्या करते।। तुम से तो कोई उम्मीद न थी हम अपनी हिमायत क्या करते।। इकतरफ़ा वफ़ा के मानी क्या हम दावा-ए-उल्फ़त क्या करते।। दिल तोड़ दिया इससे ज्यादा तुम और अज़ीयत क्या करते।। रब की मर्जी से आये गये अब जश्ने विलादत क्या करते।। जब तू ही मेरा हासिल न रहा फिर कोई हसरत क्या करते।। सुरेशसाहनी अदावत-शत्रुता हिमायत-पक्ष लेना दावा-ए-उल्फ़त --प्यार का दावा अज़ीयत- परेशानी,यातना जश्ने-विलादत--जन्मोत्सव
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मुझे तीन उपाधियां बेमानी लगती हैं।मजदूर,कार्यकर्ता और कवि।दुर्भाग्य से ये तीनों मेरे साथ जुड़ी हैं।इन तीनों को मात देने लायक एक और उपाधि है-बेचारा भला आदमी।इस पर तो परसाई जी ने निबन्ध ही लिख डाला है। इसमें स्वतः तीन विशेषताओं का बोध हो जाता है। एक बेचारा भला आदमी गधे से भी निरीह प्राणी है।कम से कम गधा दुलत्ती चलाकर विरोध तो प्रकट कर लेता है।अब आप एक कवि ,वह भी हिंदी की हैसियत का अंदाजा तो लगा ही सकते हैं। अभी छः माह पहले एक सज्जन ने अनवरत कार्यक्रमों में बुलाया।दो में मैं गया भी। वे सज्जन सम्मान तो करते थे।किन्तु हमे लगा कि वे हमें इस्तेमाल कर रहे थे।तीसरे कार्यक्रम में उन्होंने फिर बुलाया।किन्तु मैंने विनम्रता से उन्हें मना कर दिया।वे हमसे चैरिटी के लिए आग्रह करने लगे।मैंने आयोजको से जानकारी ली तो पता चला कि वे एक अच्छी खासी रकम लेते थे।माइक टेंट, कुर्सियां नाश्ता पानी सब का पैसा मिलता था/पेमेंट किया जाता था।सिर्फ कलाकार और कवि से चैरिटी चाहते थे।यही स्थिति कमोवेश हर जगह है। खैर ऐसा मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि हिंदी कवियों की रही सही बेइज़्ज़ती बिगाड़ने का सराहनीय प्रयास आज ...
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शूल से भी अधिक है कुसुम की चुभन जान लेते तो अँकवार करते नहीं । आशनाई से बेहतर है अनजानपन जान लेते जो हम प्यार करते नहीं।।..... दर्द उसने दिया जो भी दिल मे रहा जिसपे विश्वास था उसने धोखा दिया फूल जिसको दिए उससे पत्थर मिले प्यार जिसको किया छल उसी ने किया सामने से सगे वार करते नहीं जान लेते तो एतबार करते नहीं।।..... हम विचरते रहे स्वप्न के लोक में हम भटकते रहे वस्ल की चाह में हम संवरते रहे जिसके आलोक में वो अंधेरा बना प्यार की राह में सिर्फ़ मतलबपरस्ती था मतलब अगर अहले-उल्फ़त तो हम प्यार करते नहीं।।....
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आप का अपना घर है चले आइए। मुन्तज़िर हर नज़र है चले आईये।। मेरी पलकों से हैं ये बुहारी हुई साफ सुथरी डगर है चले आईये।। आपके बिन जियें और मुमकिन नहीं ज़िन्दगी आज भर है चले आईये।। साथ ताउम्र चलना है जिस पर हमें ये वही रहगुज़र है चले आईये।। आज मिलिये अभी कल गया सो गया कल की किस को ख़बर है चले आईये।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जिस्म का हर खम निकलना चाहता है। आज अपना दम निकलना चाहता है।। अब न टालो इस रुते-रंगीन को हाथ से मौसम निकलना चाहता है।। रात अपनी रौ में है पर क्या करे चाँद भी मद्धम निकलना चाहता है।। वो पशेमाँ है तुम्हारे हुस्न से चाँद अब कुछ कम निकलना चाहता है।। ज़ुल्म उसके हद से ज्यादा हैं कि अब दर्द से मरहम निकलना चाहता है।। है वही गंगोत्री से सिंधु तक प्राण पर संगम निकलना चाहता है।। क्या नई दुनिया बसाएगा कोई किस तरफ आदम निकलना चाहता है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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ऐसे बोरा बिस्तर लादे फिरते हैं। जैसे गहना जेवर लादे फिरते हैं।। हम बच्चों की दौलत क्या है बस्तों में सीपी कन्चे पत्थर लादे फिरते हैं।। थक जाते हो जितनी ज़िम्मेदारी से हम तो उतना अक्सर लादे फिरते हैं।। हम बंजारों की किस्मत है सड़कों पर हम परिवार नहीं घर लादे फिरते हैं।। विक्रम के बेताल सरीखी सरकारें जिनको हम सब सिर पर लादे फिरते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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बाबू का रुजगार छुट गया क्या विद्यालय पढ़ने जायें। सोच रहे हैं इस सांसत में हम भी कहीं कमाने जायें।। कोरोना में काम नहीं था विद्यालय भी कम खुल पाए फीस कहाँ से दे पाते हम सो स्कूल नहीं जा पाए सोचा है कुछ काम मिले तो हम भी घर मे हाथ बँटाएँ ।। मत पूछो यह कोरोना ने किस किस घर ना करी तबाही और आपदा में अवसर ले सरकारों ने करी उगाही विद्यालय भी सोच रहे हैं कैसे हम कुछ और कमायें!! किश्तों पर टीवी आया था पिछली किश्त नहीं जा पाई जैसे तैसे इधर उधर से बाबूजी की चली दवाई क्लास ऑनलाइन की ख़ातिर कैसे मोबाइल हम लायें।। अम्मा इस बीमारी में भी कर आती है चौका बासन चार घरों से जैसे तैसे चल जाता है घर का राशन अब कोई उम्मीद नहीं है आगे हम शायद पढ़ पायें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132