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Showing posts from 2017

काफी सोच समझकर लिखिए।

काफी सोच समझकर लिखिए। जो लिखिए डर डर कर लिखिए।। सच लिखना इक बीमारी है बीमारी से बचकर लिखिए।। बाबा जादू टोना लिखिए ओझा जन्तर मन्तर  लिखिए।। माना कि सरकार बुरे हैं फिर भी हद के अन्दर लिखिए।। इन सबसे मन भर जाए तो गइया लिखिए गोबर लिखिये।।

समन्वयवाद(COHERISM)

उपलब्धता ,आवश्यकता और उपभोग के बीच संतुलन ही समन्वय है।समन्वय सहज भौतिक क्रियाओं और वैज्ञानिक प्रतिपादनों को स्वीकार करता है।प्रकृति,विकास और समाज के बीच किसी भी प्रकार का असंतुलन विनाश को जन्म देता है।जो घट चुका है,जो घट रहा है और जो घटेगा इन सब के मध्य समीचीनता ही समन्वय है।जहाँ कार्लमार्क्स का द्वंदात्मक भौतिकवाद अभिजात्य वर्ग और मेहनतकशों के बीच सतत द्वन्द की बात करता है,और निर्णायक संघर्ष को अवश्यम्भावी मानता है।किंतु समन्वयवाद की अवधारणा यह है कि प्रत्येक स्थिति में जीवन का यथार्थ अथवा सभी समस्याओं की परिणति #समन्वय है। अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समस्या,संघर्ष और विपरीतता का सही विकल्प समन्वय है।समन्वय के बिना सर्वांगीण विकास,समेकित विकास ,मानव कल्याण और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की कल्पना असम्भव है। परस्पर विपरीत गुणों का समन्वय ही सृजन है।किसी भी सात्विक समन्वय का विरोध ही विनाश है।
इन गहरी चालों में फंसकर सत्ता के जालों में फंसकर अपना दुःख पीछे करती है जनता ऐसे ही मरती है।। तुम बसते हो इसका कर दो तुम हँसते हो इसका कर दो तब जनता खुद पर हंसती है जनता ऐसे ही मरती है ।। अब नोट नए ही आएंगे कुछ नोट नहीं चल पाएंगे फाके में फिर भी मस्ती है जनता ऐसे ही मरती है।। जाएगा उनका जाएगा आएगा अपना आएगा ये सपने देखा करती है जनता ऐसे ही मरती है।। कोई राजा बन जाता है जनता को क्या दे जाता है जनता जनता ही रहती है जनता ऐसे ही मरती है।।

ग़ज़ल

हम से कहता है इबादत में रहो। साफ कह देता कि खलवत में रहो।। तय हुआ हम अपना इमां बेच दें तुमको रहना है तो गुरबत में रहो।। आदमी  से जानवर हो जाओगे और कुछ दिन उसकी सोहबत में रहो।। तुमको भी ऎयारियां आ जाएंगी चन्द दिन तुम भी सियासत में रहो।। यूँ न रो उसकी जफ़ाओं के लिए किसने बोला था कि उल्फ़त में रहो।। साफगोई भी बवाले-जान है सब ये कहते हैं शराफत से रहो।।

वो औरों की तरह

ये औरों की तरह नहीं है। अपने दिल में गिरह नहीं है।। पत्ते टूटे हैं शाखों से मौसम ही इक वज़ह नही है।। रात और दिन हैं एक बराबर मेहनतकश की सुबह नहीं है।। क्या लड़ना ऐसी बातों पर जिनकी कोई सुलह नहीं है।। तुम बिन मैं रह सकूँ कहींपर ऐसी कोई जगह नहीं है।।
अनहद नाद सुना दे कोई। मन के तार मिला दे कोई।। खोया खोया रहता है मन सोया सोया रहता है तन तन से तान मिला दे कोई।। कितने मेरे कितने अपने सबके अपने अपने सपने जागी आँख दिखा दे कोई।। जनम जनम की मैली चादर तन गीली माटी का अागर आकर दाग मिटा दे कोई।। साजन का उस पार बसेरा जग नदिया गुरु ज्ञान का फेरा नदिया पार करा दे कोई।।
तू कैसी भी नजर से देख जालिम तेरा हर तीर दिल पर ही लगे है। ये कैसी बेखुदी है,क्या नशा है कि तू ही तू नज़र आती लगे है।।  गली आबाद हो जिसमे तेरा घर बहारों की गली जैसी लगे है।। तेरा नज़रे-करम जबसे हुआ है तू अपनी है नही अपनी लगे है।। किसी भी गैर के पहलू में दिखना हमारी जान जाती सी लगे है।। हया हो ,शोखियाँ हो या लड़कपन तुम्हारी हर अदा अच्छी लगे है।।
वो सलामे-इश्क़ था या और कुछ। शोर महफ़िल नें मचाया और कुछ।। यकबयक उठ कर निगाहें झुक गयी वज्म ने मतलब लगाया और कुछ।। जल उठे नाहक़ रकाबत में सभी था मेरे हिस्से में आया और कुछ।। हमने अर्जी दी थी गोशे-यार की वक्त ने हमको थमाया और कुछ।। वो उम्मीदन मेरी मैयत में मिलें वक्त हम करते हैं ज़ाया और कुछ।। लोग जो कहते हैं कैसे मान लें हमको उसने है बताया और कुछ।
उसे जो शान-ओ-शौकत मिली है। रईसी ये बिना मेहनत मिली है।। कोई तो नेकियाँ उसकी बताओ उसे किस बात की शोहरत मिली है।। करें क्या इसको ओढ़ें या बिछाएं हमें जो आपसे इज्ज़त मिली है।। करेगा क्या किसी से वो रकाबत जिसे पैदाईशी गुरबत मिली है।। बिना मांगे उसे वो सब मिला है हमें जिनके लिए हसरत मिली है।। मेरे माँ-बाप हैं दौलत हमारी उसे माँबाप की दौलत मिली है।।
मुझे खोई दिशाओं का पता दो। मुझे बहकी हवाओं का पता दो।। मैं अपने आप से कैसे मिलूंगा मुझे मेरी अदाओं का पता दो।। मेरा महफ़िल में दम घुटने लगा है कोई आकर ख़लाओं का पता दो।। गुनाहे-इश्क़ का मुजरिम हूँ यारों मुझे मेरी सज़ाओं का पता दो।। मुझे क्यूँकर बचाया डूबने से मुझे उन नाखुदाओं का पता दो।। दुआओं की ज़रूरत होगी तुमको मुझे लाकर बलाओं का पता दो।। मेरा बचपन मुझे लौटा सको तो मुझे ममता की छाँवों का पता दो।। तुम्हारा शहर हो तुमको मुबारक मुझे तुम मेरे गाँव का पता दो।।
ये ग़ज़ल कितनी पुरानी है । हाँ मगर अब भी सुहानी है।। हम इसे कैसे सही ,माने इसमें राजा है न रानी है।। मैं ज़रा आश्वस्त हो जाऊँ आपको कब तक सुनानी है।। इश्क़ में जां तक लुटा देना मर्ज़ अपना ख़ानदानी है।। ये मेरी तुरबत नहीं यारों ज़िन्दगी की राजधानी है।। दोस्ती से आजिज़ी क्यों हो ज़िन्दगी भर ही निभानी है।। आज सागर हाथ आया है आज मौसम शादमानी है।।

गजल

सत्य यही है सत्य शाह है। झूठ किन्तु अब शहंशाह है।। सच्चे अब फिरते हैं दर-दर झूठों को मिलती पनाह है।। अब सच कहते डर लगता है गोया सच कहना गुनाह है।। जो था कल लंका का रावण आज अवध का बादशाह है।। शकुनि हैं जितने सम्मानित धर्मराज उतने तबाह है।। अब दलाल एजेंट कहाते बिचौलियों की वाह वाह है।। कैशलेस है कैश कहाँ है मेहनतकश की आह आह है।।
नियति ने रंग कुछ ऐसे समेटे भी बिखेरे भी। सुनहली धूप से दिन भी कभी बादल घनेरे भी।। कभी भर नींद हम सोये सजीले ख़्वाब भी देखे कभी भर रात हम जगे कभी खुद में रहे खोये हमारी पटकथा के हम ही नायक थे चितेरे भी।। हमें अपना पता कब था हमे पहचान उसने दी बनाकर वो बिगाड़ेगी हमें किसने कहा कब था अभी तो एक लगते हैं उजाले भी अँधेरे भी।। इसे तकदीर कहते हैं ये बनती है बिगड़ती है लकीरों से न बन पायी तेरी तस्वीर कहते हैं उभरती है इन आँखों में जो  सन्ध्या भी सबेरे भी।।

गजल

कौन कहता है किसे चाँद और सूरज चाहिए। जगह आख़िर में सभीको सिर्फ़ दो गज चाहिए।। हश्र में आमाल के काग़ज़ तो मैं पहचान लूँ लिखने वाले हमको तक़दीरों के काग़ज़ चाहिए।। हम जहाँ चाहे रहें मरकज़ मेरी मोहताज़ है यूँ सहारे के लिए हरएक को मरकज़ चाहिए।। सादगी और साफगोई अब किसे स्वीकार है हर किसी को अब दिखावा और सजधज चाहिए।।

ग़ज़ल

कौन कहता है किसे चाँद और सूरज चाहिए। जगह आख़िर में सभीको सिर्फ़ दो गज चाहिए।। हश्र में आमाल के काग़ज़ तो मैं पहचान लूँ लिखने वाले हमको तक़दीरों के काग़ज़ चाहिए।। हम जहाँ चाहे रहें मरकज़ मेरी मोहताज़ है यूँ सहारे के लिए हरएक को मरकज़ चाहिए।। सादगी और साफगोई अब किसे स्वीकार है हर किसी को अब दिखावा और सजधज चाहिए।।

छेड़ मत बातें

छेड़ मत बातें पुरानी अनकही । फिर न जग जाएँ तमन्नायें वही।। आज उन बातों के कुछ मतलब नहीं वो सही या तुम सही या हम सही।।
काफिर हूँ या होने की तैयारी है। एक पत्थरदिल से अपनी भी यारी है।। रफ़्ता रफ़्ता बेइमां हो जाऊंगा नासेह की नज़रों में ये बीमारी है।। इश्क़ की राहों में मौला ने डाला है पर इब्लिसों ने कब मानी हारी है।। ###   नासेह- धर्मोपदेशक इब्लीस - शैतान
इस तरह नींद की आगोश में जा पहुंचा हूँ जैसे बच्चा कोई आँचल में दुबक जाता है।।
लोकतंत्र में राजतंत्र महिमामंडित है। ऐसा लोकतंत्र सचमुच कितना खण्डित है।। ऐसे में खलनायक ही पूजा जाता  हैं सज्जन और बुद्धिजीवी होता दण्डित है।।
इन दहकते हुए गालों पे ग़ज़ल बनती है। चांदनी घेरते बालों पे ग़ज़ल बनती है।। हर अदा आपकी है शेर मुकम्मल कोई ऐसे ख्वाबों पे ख्यालों पे ग़ज़ल बनती है।। पर इसे मेरी कमी कहिये या गलती कहिये मुझसे भूखों के निवालों पे ग़ज़ल बनती है।।

अंतर

एक निहायत हसीन बेइन्तेहाँ खूबसूरत लड़की कूड़ा बीन रही थी। पर उसके कपड़े मिसेज चोपड़ा से ठीक थे। उनके कपड़ों में कूड़ा और कूड़ा बीनने वाली जैसा ही अंतर था।

ग़ज़ल

कहाँ हैं मन्जिलें  हासिल कहाँ है। यहाँ मैं हूँ  तो मेरा दिल कहाँ है।। भरी दुनिया में तन्हा हो गया हूँ मेरी दुनियां मेरी महफ़िल कहाँ है।। मेरी खुशियाँ में रंगत हो कहाँ से मेरी खुशियों में तू शामिल कहाँ है।।

ग़ज़ल

नेता जी का हृदय द्रवित है। पर कन्या का बाप व्यथित है।। उसकी बेटी भोली भाली नेताजी की दृष्टि घृणित है।। किन्तु मीडिया और समाज में वो नेता महिमामण्डित हैं। आखिर उनके ही धनबल से गुंडा ,पत्र,पुलिस, पोषित है।। पिछले दिनों एक कन्या पर कृपादृष्टि उनकी चर्चित है। कन्या गायब है उस दिन से पूरी बस्ती ही चिंतित है।। ऐसे मौके पर नेता के दौरे से बस्ती विस्मित है। आखिर उनके ही प्रयास से सब तानाबाना विकसित है।।

ग़ज़ल

हम कहाँ इस कदर पराये थे। हम तो इक दूसरे के साये थे।। आप ने ही उसूल तोड़ दिए आप ने ही नियम बनाये थे।। गूँजते हैं अभी भी कानों में गीत जो संग गुनगुनाये थे।। किस ख़ता के लिए सज़ा दे दी इक ज़रा खुद पे मुस्कुराये थे।। हम तो फिर भी सुलह को हाज़िर हैं आप ही अपनी ज़िद पे आये थे।। आप नाहक़ खफ़ा हुए हम पर हमने वाज़िब सवाल उठाये थे।।

माँ

ठिठुरन भूख अलाव तुम्हारी छाती है। माँ तेरा एहसास हमारी थाती है।। इस सर्दी में धूप तुम्हारा आँचल है माँ तू कितने रूप बदल कर आती है।। दिन भर दुनियादारी जैसे जाड़े में रात रजाई बन कर लोरी गाती है।। तेरी ममता कम्बल में ढक लेती है जब पाले की रात गलन बढ़ जाती है।। जब भी कोहरे राह में मेरी छाते हैं तेरी दुआ ही मंज़िल तक पहुँचाती है।।
कौन इतना क़रीब है मेरे आज ख़ुद मैं भी मेरे पास नहीं।। मन की बात बताई हमसे गिरगिट ने उससे बढ़कर नेता रंग बदलते हैं।। वक्त आके जहाँ कुछ देर ठहरना चाहे माँ तेरी गोद के जैसा कोई ठहराव नही मेरी जिंदगी का मालिक कोई और हो न जाए। यारब तेरे करम में कहीं देर हो न जाये।। मेरा शौक चांदनी में वो जूनून बन गया है कहीं देर होते होते अन्धेर हो न जाये।।

नये साल पर

साल बदल जाने से ऐसा क्या होगा। कल का दिन भी बीते कल जैसा होगा।। हम ढलते सूरज को भी जल देते हैं तुमने उगता सूरज ही पूजा होगा।। हम सर्वे भवन्तु सुखिनः कहने वाले नए वर्ष में भी यह ही कहना होगा।। जो पीछे छूट गए उनको भूलूँ कैसे नव आगत का स्वागत तो करना होगा।।

ग़ज़ल

तुम्हें बातें बनाना आ गया है। तुम्हें क्या क्या छुपाना आ गया है।। बहुत खुश हूँ तेरी आवारगी से तुम्हें खाना कमाना आ गया है।। तुम्हारे ग़म शिकायत कर रहे हैं तुम्हें भी मुस्कुराना आ गया है।। हमें तुम याद आये ये बहुत है भले तुमको भुलाना आ गया है।। कि रिश्ते अहमियत खोने लगे है नया कैसा ज़माना आ गया है।।
माना कि आदमी नहीं हम जानवर सही क्या जानवर के साथ भी जायज़ है ये सुलूक।। हम पांचवे दर्जे के नागरिक हैं किसलिए किससे हुयी ये गलतियाँ किसने करी है चूक।। तुम महलों में रहकर भी महफूज़ नहीं झोपड़ियों का अपना कौन सहारा है।। उस पर भी तुम जीत सको इसकी ख़ातिर झोपड़ियों ने अपना सब कुछ हारा है।। स्मृतियों का विस्मृत होना बहुत कठिन है पर उसके प्रभाव कमतर होते जाते हैं।। नित नवीनता हमको यूँ बहला लेती है और सहज खोते पाते बढ़ते जाते हैं।।

गीत

मैं भटका कितनी छाँव तले अपने हिस्से की धूप लिए। अपनी ख़ातिर कुछ मांग न लूँ नियति ने कितने रूप लिए।। जिसने माँगा उसको बांटा कुछ को बिन मांगे दे आया। जब हमने कुछ आशायें की प्रतिफल खालीपन ही आया।। मैं याचक भी मैं दाता भी अनुरागी भी बैरागी भी  मैं जागूँ भी मैं रोऊँ भी  हतभागी बड़भागी भी

रुबाई

तुम्हारे इश्क़ में बस ये मुकाम आ जाये। तुम्हारे आशिकों में अपना नाम आ जाये।। हमारी मंजिले-मकसूद तब मुकम्मल है ये जिंदगी अगर तुम्हारे काम आ जाये।।

कविता

कभी कभी कविता प्रवाह से बाहर होती है। कभी कभी कविता भी मात्र कलेवर होती है।। कभी कभी कविता के नाम तमाशा होता है शब्दों का गठजोड़ काव्य की भाषा होता है किन्तु समझता है जो रस का प्यासा होता है तब कवि की ,कविता की छीछालेदर होती है।।कभी कभी मैं भी अक्सर ऐसी कविताएँ लिख जाता हूँ पढ़ता हूँ ,शर्मा जाता हूँ फिर पछताता हूँ जान बूझकर मैं ऐसी गलती कर जाता हूँ ग्लानि हमें फिर फिर अपने ही ऊपर होती है।।कभी कभी भाव उमड़ते हैं तो कविता स्वतः उपजती है लय गति छंद नहीं भावों पर कविता चलती है सत्ता का मुंह  कविता नहीं निहारा करती है कविता सहज चेतना, विद्रोही स्वर होती है।।कभी कभी

ग़ज़ल

चलो माना कि ये सब चोंचले हैं। बतादो कौन से मज़हब भले हैं।। जो दुनिया जोड़ने को बोलते हैं उन्हीं सब की वज़ह से फासले हैं।। मुहल्ले के शरीफों की न बोलो उन्ही में हद से ज्यादा दोगले हैं।। ज़हाँ बदनाम है उनकी वजह से गला जो काटते मिलकर गले हैं।। जो दिल में हो वो मुंह पे बोलते हैं वो अच्छे हैं बुरे हैं या भले हैं।। जो ऊँचे लोग हैं उनसे तो अच्छे मुहल्लों के हमारे मनचले हैं।। अभी भी प्यार बाकी हैं ज़हाँ में अभी भी लोग कितने बावले हैं।।

ग़ज़ल

आस है या फिर आहट है। ये कैसी अकुलाहट है।। जाने किसकी याद लिए गुमसुम गुमसुम चौखट है।। तब सम्बन्ध जरूरत थे अब तो जैसे झंझट है।। ऐसा क्या बदलाव हुआ रिश्तों में गरमाहट है।। कुछ उम्मीदें जागी हैं या मौसम की करवट है।। अब भी आशा बाकी है नाम इसी का जीवट है।।
मैं कहाँ कुछ हूँ कलन्दर है वही। सिर्फ कतरा हूँ समन्दर है वही।। उसको हर अच्छे बुरे का इल्म है जानता है जोे   धुरंधर है वही ।। आशिकी का भी अज़ब अंदाज़ है हारता है जो सिकन्दर है वही।। हाँ गुरु बनने से जिसको उज़्र है वो ही आलिम है,मछिन्दर है वही।। कोई मक़तल है मुहब्बत जानिये सिर दिया जिसने भी अंदर है वही।।

ग़ज़ल

ग़ज़ल कह रहा हूँ इसी जिंदगी पर। कोई हैफ है मेरी संजीदगी पर ।। कहाँ काम आता वो सजना संवरना कोई मर मिटा जब मेरी सादगी पर।। दुआ कर कि बरसे शराबों के बादल करम कर दे साक़ी मेरी तिश्नगी पर।। कंवल जैसे तुम हो भ्रमर मेरा मन है कोई शक है क्या मेरी आवारगी पर।। शबनम की बूंदों से लबरेज गुल तुम कोई शेर कह दूँ तेरी ताज़गी पर।।                                 --सुरेश साहनी

ग़ज़ल

मेरे महबूब हो मेरा भरम है।  भला नाचीज़ पे कितना करम है।। इसे तर्के-वफ़ा आती नहीं है      हमें मंजूर पत्थर का सनम है।। सितम ढाओ सताओ जान ले लो   तुम्हारी बेरुखी से फिर भी कम है।। मुझे तुम इश्क़ की हद तक न चाहो    कि राहे इश्क़ का अंजाम ग़म है।। यही है ज़िन्दगी भर की कमाई     जनाज़े में मेरे कितना अलम है।।

गीत/ग़ज़ल

झोंपड़ियों  से ही विकास के मानक बनते हैं। छोटे प्रकरण से ही बड़े कथानक बनते हैं।। हर गाथा के पीछे वर्षों  मेहनत होती है तुमको क्या लगता है सभी अचानक बनते हैं।। अपने अंदर कृष्ण सरीखे गुण तो ले आओ यूँ ही नहीं सुदामा सबके याचक बनते हैं।। माताएं जब जीजाबाई जैसी होती हैं तभी शिवाजी भीम सरीखे बालक बनते हैं।। निष्ठ और प्रतिबद्ध रहें यह अपने ऊपर है हम दर्शन देते हैं या फिर दर्शक बनते हैं।।
कहते हैं नफ़रत खुद को खा जाती है इस डर से कुछ लोग मुहब्बत सीख गए।। जान तुम्हारी आँखों में हैं। रात हमारी आँखों में हैं।। हम भी देखे आखिर क्या क्या ख़्वाब तुम्हारी आँखों में है।। रस के प्याले होठ तुम्हारे और ख़ुमारी आँखों में है।। सब ढूंढ़े हैं महफ़िल महफ़िल किन्तु कटारी आँखों में है।। अच्छा अब तो सो जाने दो नींद बिचारी आँखों में है।।

ग़ज़ल

चिंता रुपी चूहे नींदे कुतर गए। सपने रातों बिना रजाई ठिठुर गए।। ग़म के सागर में हिचकोले खाने थे तुम भी कितनी गहराई में उतर गए।! परी कथाओं के किरदार कहाँ ढूंढें दादा दादी नाना नानी किधर गए।। कितनी मेहनत से चुन चुन कर जोड़े थे गोटी सीपी कंचे सारे बिखर  गए।। बचपन जिधर गया मस्ती भी उधर गयी बिगड़ा ताना बाना जब हम सँवर गए।।

ग़ज़ल

कितनी तकलीफों से कितनी मुश्किल से। दूर  हुआ  जाता हूँ  अपने  हासिल से।।  हठ करता है प्यार किरायेदारी में लाख निकालो पर कब जाता है दिल से।। उसके प्यार में मरने की अभिलाषा है यार सिफारिश कर दो  मेरे क़ातिल से ।। राहों ने जीवन भर साथ निभाया है हम ही दूर रहे हैं अपनी मन्ज़िल से।। हम तो लड़कर ही आज़ादी लाये थे भीख नहीं मांगी थी हमने चर्चिल से।। पहले जितना नेह कलम कागज से था अब उससे भी बढ़कर है मोबाइल से।।

रुबाई

उस घर में शीशे भी हैं दरवाजे भी। लोग लगा लेते हैं कुछ अंदाज़े भी।। औरों से उम्मीदें हम रखते हैं पर रिश्तों के होते हैं और तकाज़े भी।।

ग़ज़ल/गीत

आंसू एक न रोने देना मेरे बाद उसे। तनहा भी मत होने देना मेरे बाद उसे।। मेरे बाद हमारी यादें  मिलने आएँगी यादों में मत खोने देना मेरे बाद उसे ।। थोड़ी जिम्मेदारी हमपर अब भी बाकी है उनका बोझ न ढोने देना मेरे बाद उसे।। मेरे रहते आंसू उसके गाल न छू पाये तुम दामन न भिगोने देना मेरे बाद उसे।। वो घबरा जाती है अब भी तनहा होने पर ये एहसास न होने देना मेरे बाद उसे ।। ये सन्देश हृदय में रखना मत  बिसरा देना तब कुछ और अधिक संजोना मेरे बाद उसे।।

गांधी नहीं मरे

गांधी गोली से नहीं मरे गांधी गोली से मर भी नही सकते गांधी गोडसे ने नही मारा वो तब मरे जब हमने उनके विचार छोड़ दिए अब कहो कि गांधी इश्तेहार की चीज है। नहीं ना! फिर चुप रहो और कहो हे राम!!!!!!!

गजल

ठहरी ठहरी रात चल पड़ी। जहाँ तुम्हारी बात चल पड़ी।। चंदा शरमाया घूँघट में तारों की बारात चल पड़ी।। रजनीगंधा की खुशबू से बहकी खुशियाँ साथ चल पड़ी।। आँखों ही आँखों में जैसे सारी काएनात चल पड़ी।। फिर बहार ने खोली गांठें बासन्ती सौगात चल पड़ी।।

गजल

तुम भी कितने बदल गए हो। पहले जैसे कम लगते हो।। शहर क्या गए तुम तो अपनी गांव गली भी भूल गए हो।। कम के कम अपनी बोली में क्षेमकुशल तो ले सकते हो।। मैं भी कहाँ बहक जाता हूँ तुम भी कितने पढ़े लिखे हो।। मैं ठहरा बीते जीवन सा तुम अब आगे निकल चुके हो।। पर मैं राह निहार रहा हूँ देखें कब मिलने आते हो।। मैं यूँ ही बकता रहता हूँ तुम काहे दिल पर लेते हो।।

गांधी

यदा कदा कोई फोटो चरखा हो जाती है। इसी बहाने गांधी की चर्चा हो जाती है ।। गांधी की ऊँचाई यह पीढ़ी क्या समझेगी जो गांधी को गाली देकर नेता हो जाती है।। गांधी पूंजीपति को धन का ट्रस्टी कहते थे अब पूंजीपति की गुलाम सत्ता हो जाती है।।

ग़ज़ल

इस सफ़र की इन्तेहाँ मत पूछिये। कौन जायेगा कहाँ मत पूछिए।। हो सके तो दर्द मेरा बाँटिये हमसे जख़्मों के निशाँ मत पूछिए।। जब की बेघर हो गए हम जिस्म से लामकाँ से अब मकाँ मत पूछिए।। बेखबर हैं बेसरो-सामा है हम बेवजह हाले-जहाँ मत पूछिये।। दार पे जिसकी  वजह से चढ़ गए अब वो तफ़सील-ए-बयाँ मत पूछिए।। साफ़ दिखता है मेरा घर जल गया हर तरफ क्यों है धुआं मत पूछिए।।

ग़ज़ल

सिर्फ़ दुनिया नहीं मुक़ाबिल है। मेरे अन्दर भी एक क़ाबिल है।। मुझको बे-जिस्म क्या करेगा वो हाँ मगर साजिशों में शामिल है।। नेमतें जब मिली तो खलवत में बाईस-ए-ज़िल्लतें तो महफ़िल है।। अब मैं शिकवे गिले नहीं करता ये मेरी ज़िंदगी का हासिल है।। सुबह दैरो-हरम ही मंजिल है शाम को मयकदा ही मंजिल है।। तू न ऐसे नज़र झुकाया कर सब कहेंगे क़ि तूही क़ातिल है।।

ग़ज़ल

क्या सच है अनुमान लगा कर देखो। इक दीवारों से कान लगा कर देखो।। कमियां तो हम में भी हैं तुम में भी अपने अंदर ध्यान लगा कर देखो।। डर में ताकत भी है काबिलियत भी केवल कटि में म्यान लगा कर देखो।। एक मसीहा मैं भी हो सकता हूँ बस मुझमें  ईमान लगाकर देखो।।

ग़ज़ल

कविता  अब कुछ कम चलती है। सिर्फ़ गलेबाजी चलती  है।। भाव शून्य सी रचनाओं में केवल तुकबन्दी मिलती है। सस्ती और चुटकुलों वाली कविता पर ताली मिलती है।। फूहड़ता को प्रश्रय देने - वालों की कवि में गिनती है।। जो जनता की नब्ज पकड़ ले आज उसी कवि की चलती है।।

ग़ज़ल

तुम कुछ भी कह सकती हो। चाहे चुप रह सकती हो ।। माँ की खातिर हाज़िर हो सास को भी सह सकती हो।। धारावाहिक फैशन है तुम इसमें बह सकती हो।। संस्कारों के साथ चलो नींव बिना ढह सकती है।। अब तुम पर है  चाहो तो हाथ मेरा गह सकती हो।।

ग़ज़ल

लोग कितने आ रहे हैं जा रहे हैं। सौ बरस के घर बनाये जा रहे हैं।। सब मुसाफ़िर है यहाँ सब जानते हैं किन्तु सच से मुंह चुराये जा रहे हैं।। प्यार के दो चार पल ही जिंदगी है किसलिए नफरत बढाये जा रहे हैं।।

गजल

क्या को क्या दिखला देते हैं। नये दौर  के आईने हैं।। वो ही बड़के देशभक्त हैं आज देश जो बेच रहे हैं।। नेता जी का बीपी कम है मत सोचो ग़म में डूबे हैं।। अभी चुनावों के चक्कर में हम उनके हैं वो मेरे हैं।। वरना उनके घर के चक्कर हरदम जनता ही फेरे हैं।। गिरगिट शर्मिंदा हैं क्योंकि नेता बहुरंगी दिखते हैं ।। उन बेचारे घड़ियालों से बढ़कर संसद में बैठे हैं।।

ग़ज़ल

उसे नाकाम रहने की बड़ी कीमत मिली है। किसी अगियार दल में अब उसे इज़्ज़त मिली है।। उसके  बाप उसे कम चाहते थे कह रहा है पड़ोसी की दुआ से अब उसे बरकत मिली हैं।। अपने बाप को अपना के वो गुमनाम ही था गधे को बाप कहने से उसे शोहरत मिली है।। कभी रोजी औ रोटी के लिए मोहताज था जो सियासत से उसे बेइंतेहा दौलत मिली है।। उसी नेता से जनता को मिला क्या हम से पूछो महज बेरोजगारी भूख और ज़िल्लत मिली है।।
इक अपना जग छोड़ गया फिर। अंतस्थल तक  तोड़  गया फिर ।। राह बिचारी क्या कर पाती राही जब मुंह मोड़ गया  फिर।। सदमों से हम सम्हले ही थे तब तक  वक्त झिंझोड़ गया फिर।। राहत के सावन से पहले अंदर तलक निचोड़ गया  फिर ।। कोई हाथ पकड़ने वाला कस के बाँह मरोड़ गया  फिर ।। ( A family member leave us today )

ग़ज़ल

चाँद बहुत आवारा है। कहते हैं बंजारा है।। घटता बढ़ता रहता है शायद ग़म का मारा है।। उसने किससे प्यार किया सब कहते हैं प्यारा है।। अक्सर डूबा करता है आखिर किससे हारा है।। दिल तोड़े भी जोड़े भी लेकिन कब स्वीकारा है।। कुछ वो है मशरूफ बहुत कुछ हम भी नाकारा हैं।।

ग़ज़ल

आप इक कायदा बना दीजे। हो सके फासले मिटा दीजै।। मन में कोई मलाल मत रखिये जी में आये तो कुछ सजा दीजे।। इश्क़ करना गुनाह है गर तो प्यार की हथकड़ी लगा दीजे।। कुछ तकाज़े हैं आप की ज़ानिब आप बदले में मुस्करा दीजै।। क्या निगाहों से वार करते हैं कुछ हमें पैंतरे सीखा दीजै।। कुछ नहीं तो हमारी हद क्या है आप ही दायरा बता दीजै।। आज दिल कुछ बुझा बुझा सा है इक पुरानी गजल सुना दीजै।।

भोजपुरी

उ गोड़ उठा के मुतेलन। एसे बड़ मनई कहावेलन।। बेटी पतोहि के बुझत बा जब महतारी ना बुझेलन।। के कहे बुढ़ौती आय गईल उ दउड़ के पाला बदलेलन।। पहिले रहले जउने दल में अब ओही के गरियावेलन।।

गजल

अब कहीं दैरो-हरम से दूर चल। हर सियासी पेंचों-ख़म से दूर चल।। घटती बढ़ती उलझनों की बेबसी जिंदगी इस ज़ीरो-बम से दूर चल।। कलम खेमों में न हो जायें क़लम हो न जाए सच कलम से दूर चल।। कौन अब आवाज़ देगा बेवजह चल दिया तो हर वहम से दूर चल।। अब तो खलवत से तनिक बाहर निकल अब तो एहसासे-अदम से दूर चल।। चल कि अब हर इल्तिज़ा से दूर चल चल कि अब रंज़ो-अलम से दूर चल
कितना बिगड़े कितना सँवरे। कब सुधरे थे हम कब सुधरे।। चार दिनों में क्या क्या करते आये खाये सोये गुज़रे।। राहें भी तो थक जाती हैं तकते तकते पसरे पसरे।। पते ठिकाने अब होते हैं। तब थे टोला,पूरे, मजरे।। आने वाले कल के रिश्ते छूटे तो शायद ही अखरे।। एक समय जोड़े जाते थे रिश्ते टूटे भूले बिसरे ।।

रुबाई

तखल्लुस से कभी हारे कभी उन्वान से हारे। हम अपने आप पर थोपी गयी पहचान से हारे।। लड़ाई हारने का दुःख न होता सामने लेकिन हमें दुःख है की हम हारे तो इक शैतान से हारे।। कहाँ जीए   कहाँ  पैदा हुए थे। बताएं क्या कि हम क्या क्या हुए थे।। तुम्हें लगता है कुछ आसान होगा चढ़े सूली पे तब इसा  हुए थे।। हमने कब अधिकार से माँगा तुम्हें। हाँ मगर अधिकार भर चाहा तुम्हें।। झूठ क्यों ताउम्र के वादे करूँ जब तलक जिन्दा हूँ चाहूँगा तुम्हें।।

नज़्म

नींद गायब सुकून गायब है। जिस्मे-फ़ानी से खून गायब है।। किस की ख़ातिर जियें मरें किसपर सब तो अपनी रवानियों में हैं। और सच पूछिये  वफ़ादारी सिर्फ किस्से-कहानियो में हैं  फिर जो रह रह उबाल खाती थी अब वो जोशो जूनून गायब है।। कोई उम्मीद हो तवक्को हो कोई मन्ज़िल,  तलाश हो कोई जिंदगी जीने की वजह तो हो कुछ बहाना हो आस हो कोई आज तुम ही नही तो लगता है हासिले-कारकून गायब है।

कविता

जो पुचकारे फिर क़त्ल करे हम ऐसा कातिल चुनते हैं। हम भुखमरी लाचारी को अपना मुस्तक़बिल चुनते हैं।। फिर हमको अपने क़ातिल का मज़हब भी ध्यान में रखना है। जो अपनी दीन का कातिल हो उसके हाथों ही मरना है ।। मरने वाले को मोहलत दे वो नेक रहमदिल चुनते हैं।। कोई झंडा हो हर्ज नहीं कोई डंडा हो हर्ज नहीं बस सौदागर वो अच्छा हो मुल्ला पंडा हो हर्ज नहीं जब मरने की आज़ादी है हम आलाक़ातिल चुनते हैं।।

गीत

मेरी निजताओं को क्यों मंचो पर गाते हो। फिर क्योंकर हमपर अगणित प्रतिबन्ध लगाते हो।। हम जो एक दूसरे के नैनों में बसते हैं हम जो एक दूसरे में ही खोये रहते हैं इन बातों को क्यों चर्चा के विषय बनाते हो।। आखिर हमने प्रेम किया कोई अपराध नहीं अंतरंग बातें हैं अपनी जन संवाद नहीं अंतरंगता को क्यों इश्तेहार बनाते हो।। फिर अपने संबंधों की भी इक मर्यादा है मानवीय है ईश्वरीय है कम या ज्यादा है महफ़िल में क्यों मर्यादा विस्मृत कर जाते हो।। हम को एक दूसरे के दिल में ही रहने दो सम्बन्धों की प्रेम नदी को कलकल बहने दो क्यों तटबन्ध तोड़कर उच्छ्रंखल हो जाते हो।।
मधुलिके जब तुम नहीं हो व्यर्थ है मधुमास कोई। पंख कतरे जा चुके जब क्या करे आकाश कोई।। धूल धूसरित रास्तों पर लूट चुका है कारवां भी फिर मेरे  हिस्से का सूरज खो चुका है आसमां भी अब तिमिरमय रास्तों का क्या करे आभास कोई।।मधुलिके आस्था मेरी नहीं है मकबरों में या महल में हम तुम्हारे साथ रहते कन्दरा में या महल में तुमसे ही लगता था प्रियतम घर मेरा रनिवास कोई।। एक सुन्दर सी कहानी अपने पहले ही चरण में खत्म कुछ ऐसे हुयी ज्यों शस्त्र रख दे पार्थ रण में  द्यूत में ज्यों हार जीवन फिर चला बनवास कोई।।मधुलिके
बड़ी सहजता से वह अपने सारे कर्ज उतार गया। मैंने उसको नमन किया वह मेरे चरण पखार गया। नदियां भर भर संदेशे जब हिमगिरि ने भेजे तो वह भी  बादल बनकर उनतक अगणित बार गया।। का भईया हम का कहि दिहलीं। रउरे काहें  रिसिया गईलीं ।। रउरे कहलीं भल दिन आई हम ते उहे  तिखरबे कइलीं।।

ग़ज़ल

हमें फुर्सत कहाँ थी आज़माते । तुम्हे हिम्मत थी मेरे दिल से जाते।। बताते दर्द तो किसको बताते छुपाते दर्द तो किससे छुपाते।। जो दिल में रह के भी तुमने न देखा तो दिल के जख्म फिर किसको दिखाते।। मेरी आवाज़ को तुम सुन न पाए भला फिर दूर से किसको बुलाते।। मेरे क़ातिल नहीं हैं हाथ तेरे यक़ीनन कांपते खंज़र चलाते।। मुहब्बत का भरम रहने दो प्यारे किसी का दिल नहीं ऐसे दुखाते।।

Tum bhi tanha

तुम भी तन्हा हम भी तन्हा। दिल भी तन्हा गम भी तन्हा।। इक अपने तन्हा होने से लगता है  आलम भी तन्हा।। चाँद तेरा गम किसने देखा  रोता  है शबनम भी तन्हा।। दिल के दर्द नहीं जायेंगे जख़्म बड़े मरहम भी तन्हा।। हौवा ने तौबा कर ली है फिरता है आदम भी तन्हा।।