कविता

कभी कभी कविता प्रवाह से बाहर होती है।
कभी कभी कविता भी मात्र कलेवर होती है।।

कभी कभी कविता के नाम तमाशा होता है
शब्दों का गठजोड़ काव्य की भाषा होता है
किन्तु समझता है जो रस का प्यासा होता है

तब कवि की ,कविता की छीछालेदर होती है।।कभी कभी

मैं भी अक्सर ऐसी कविताएँ लिख जाता हूँ
पढ़ता हूँ ,शर्मा जाता हूँ फिर पछताता हूँ
जान बूझकर मैं ऐसी गलती कर जाता हूँ

ग्लानि हमें फिर फिर अपने ही ऊपर होती है।।कभी कभी

भाव उमड़ते हैं तो कविता स्वतः उपजती है
लय गति छंद नहीं भावों पर कविता चलती है
सत्ता का मुंह  कविता नहीं निहारा करती है

कविता सहज चेतना, विद्रोही स्वर होती है।।कभी कभी

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