ग़ज़ल

इस सफ़र की इन्तेहाँ मत पूछिये।
कौन जायेगा कहाँ मत पूछिए।।
हो सके तो दर्द मेरा बाँटिये
हमसे जख़्मों के निशाँ मत पूछिए।।
जब की बेघर हो गए हम जिस्म से
लामकाँ से अब मकाँ मत पूछिए।।
बेखबर हैं बेसरो-सामा है हम
बेवजह हाले-जहाँ मत पूछिये।।
दार पे जिसकी  वजह से चढ़ गए
अब वो तफ़सील-ए-बयाँ मत पूछिए।।
साफ़ दिखता है मेरा घर जल गया
हर तरफ क्यों है धुआं मत पूछिए।।

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