ग़ज़ल
हम कहाँ इस कदर पराये थे।
हम तो इक दूसरे के साये थे।।
आप ने ही उसूल तोड़ दिए
आप ने ही नियम बनाये थे।।
गूँजते हैं अभी भी कानों में
गीत जो संग गुनगुनाये थे।।
किस ख़ता के लिए सज़ा दे दी
इक ज़रा खुद पे मुस्कुराये थे।।
हम तो फिर भी सुलह को हाज़िर हैं
आप ही अपनी ज़िद पे आये थे।।
आप नाहक़ खफ़ा हुए हम पर
हमने वाज़िब सवाल उठाये थे।।
हम तो इक दूसरे के साये थे।।
आप ने ही उसूल तोड़ दिए
आप ने ही नियम बनाये थे।।
गूँजते हैं अभी भी कानों में
गीत जो संग गुनगुनाये थे।।
किस ख़ता के लिए सज़ा दे दी
इक ज़रा खुद पे मुस्कुराये थे।।
हम तो फिर भी सुलह को हाज़िर हैं
आप ही अपनी ज़िद पे आये थे।।
आप नाहक़ खफ़ा हुए हम पर
हमने वाज़िब सवाल उठाये थे।।
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