कविता
जो पुचकारे फिर क़त्ल करे
हम ऐसा कातिल चुनते हैं।
हम भुखमरी लाचारी को
अपना मुस्तक़बिल चुनते हैं।।
फिर हमको अपने क़ातिल का
मज़हब भी ध्यान में रखना है।
जो अपनी दीन का कातिल हो
उसके हाथों ही मरना है ।।
मरने वाले को मोहलत दे
वो नेक रहमदिल चुनते हैं।।
कोई झंडा हो हर्ज नहीं
कोई डंडा हो हर्ज नहीं
बस सौदागर वो अच्छा हो
मुल्ला पंडा हो हर्ज नहीं
जब मरने की आज़ादी है
हम आलाक़ातिल चुनते हैं।।
हम ऐसा कातिल चुनते हैं।
हम भुखमरी लाचारी को
अपना मुस्तक़बिल चुनते हैं।।
फिर हमको अपने क़ातिल का
मज़हब भी ध्यान में रखना है।
जो अपनी दीन का कातिल हो
उसके हाथों ही मरना है ।।
मरने वाले को मोहलत दे
वो नेक रहमदिल चुनते हैं।।
कोई झंडा हो हर्ज नहीं
कोई डंडा हो हर्ज नहीं
बस सौदागर वो अच्छा हो
मुल्ला पंडा हो हर्ज नहीं
जब मरने की आज़ादी है
हम आलाक़ातिल चुनते हैं।।
हाँ वो अपने मज़हब का है
ReplyDeleteवो कुछ नरमी से लूटेगा
मरने का हक़ तो देगा ही
पर धीरे धीरे मारेगा
बेशक़ हुसैनियत का हक़ है
हम हक़ से बातिल चुनते हैं।।