ग़ज़ल

सिर्फ़ दुनिया नहीं मुक़ाबिल है।
मेरे अन्दर भी एक क़ाबिल है।।
मुझको बे-जिस्म क्या करेगा वो
हाँ मगर साजिशों में शामिल है।।
नेमतें जब मिली तो खलवत में
बाईस-ए-ज़िल्लतें तो महफ़िल है।।
अब मैं शिकवे गिले नहीं करता
ये मेरी ज़िंदगी का हासिल है।।
सुबह दैरो-हरम ही मंजिल है
शाम को मयकदा ही मंजिल है।।
तू न ऐसे नज़र झुकाया कर
सब कहेंगे क़ि तूही क़ातिल है।।

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