रुबाई

तखल्लुस से कभी हारे कभी उन्वान से हारे।
हम अपने आप पर थोपी गयी पहचान से हारे।।
लड़ाई हारने का दुःख न होता सामने लेकिन
हमें दुःख है की हम हारे तो इक शैतान से हारे।।

कहाँ जीए   कहाँ  पैदा हुए थे।
बताएं क्या कि हम क्या क्या हुए थे।।
तुम्हें लगता है कुछ आसान होगा
चढ़े सूली पे तब इसा  हुए थे।।

हमने कब अधिकार से माँगा तुम्हें।
हाँ मगर अधिकार भर चाहा तुम्हें।।
झूठ क्यों ताउम्र के वादे करूँ
जब तलक जिन्दा हूँ चाहूँगा तुम्हें।।

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा