गजल

अब कहीं दैरो-हरम से दूर चल।
हर सियासी पेंचों-ख़म से दूर चल।।
घटती बढ़ती उलझनों की बेबसी
जिंदगी इस ज़ीरो-बम से दूर चल।।
कलम खेमों में न हो जायें क़लम
हो न जाए सच कलम से दूर चल।।
कौन अब आवाज़ देगा बेवजह
चल दिया तो हर वहम से दूर चल।।
अब तो खलवत से तनिक बाहर निकल
अब तो एहसासे-अदम से दूर चल।।
चल कि अब हर इल्तिज़ा से दूर चल
चल कि अब रंज़ो-अलम से दूर चल

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