काफिर हूँ या होने की तैयारी है। एक पत्थरदिल से अपनी भी यारी है।। रफ़्ता रफ़्ता बेइमां हो जाऊंगा नासेह की नज़रों में ये बीमारी है।। इश्क़ की राहों में मौला ने डाला है पर इब्लिसों ने कब मानी हारी है।। ### नासेह- धर्मोपदेशक इब्लीस - शैतान
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Showing posts from January, 2017
ग़ज़ल
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नेता जी का हृदय द्रवित है। पर कन्या का बाप व्यथित है।। उसकी बेटी भोली भाली नेताजी की दृष्टि घृणित है।। किन्तु मीडिया और समाज में वो नेता महिमामण्डित हैं। आखिर उनके ही धनबल से गुंडा ,पत्र,पुलिस, पोषित है।। पिछले दिनों एक कन्या पर कृपादृष्टि उनकी चर्चित है। कन्या गायब है उस दिन से पूरी बस्ती ही चिंतित है।। ऐसे मौके पर नेता के दौरे से बस्ती विस्मित है। आखिर उनके ही प्रयास से सब तानाबाना विकसित है।।
ग़ज़ल
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हम कहाँ इस कदर पराये थे। हम तो इक दूसरे के साये थे।। आप ने ही उसूल तोड़ दिए आप ने ही नियम बनाये थे।। गूँजते हैं अभी भी कानों में गीत जो संग गुनगुनाये थे।। किस ख़ता के लिए सज़ा दे दी इक ज़रा खुद पे मुस्कुराये थे।। हम तो फिर भी सुलह को हाज़िर हैं आप ही अपनी ज़िद पे आये थे।। आप नाहक़ खफ़ा हुए हम पर हमने वाज़िब सवाल उठाये थे।।
माँ
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ठिठुरन भूख अलाव तुम्हारी छाती है। माँ तेरा एहसास हमारी थाती है।। इस सर्दी में धूप तुम्हारा आँचल है माँ तू कितने रूप बदल कर आती है।। दिन भर दुनियादारी जैसे जाड़े में रात रजाई बन कर लोरी गाती है।। तेरी ममता कम्बल में ढक लेती है जब पाले की रात गलन बढ़ जाती है।। जब भी कोहरे राह में मेरी छाते हैं तेरी दुआ ही मंज़िल तक पहुँचाती है।।
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कौन इतना क़रीब है मेरे आज ख़ुद मैं भी मेरे पास नहीं।। मन की बात बताई हमसे गिरगिट ने उससे बढ़कर नेता रंग बदलते हैं।। वक्त आके जहाँ कुछ देर ठहरना चाहे माँ तेरी गोद के जैसा कोई ठहराव नही मेरी जिंदगी का मालिक कोई और हो न जाए। यारब तेरे करम में कहीं देर हो न जाये।। मेरा शौक चांदनी में वो जूनून बन गया है कहीं देर होते होते अन्धेर हो न जाये।।
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माना कि आदमी नहीं हम जानवर सही क्या जानवर के साथ भी जायज़ है ये सुलूक।। हम पांचवे दर्जे के नागरिक हैं किसलिए किससे हुयी ये गलतियाँ किसने करी है चूक।। तुम महलों में रहकर भी महफूज़ नहीं झोपड़ियों का अपना कौन सहारा है।। उस पर भी तुम जीत सको इसकी ख़ातिर झोपड़ियों ने अपना सब कुछ हारा है।। स्मृतियों का विस्मृत होना बहुत कठिन है पर उसके प्रभाव कमतर होते जाते हैं।। नित नवीनता हमको यूँ बहला लेती है और सहज खोते पाते बढ़ते जाते हैं।।
कविता
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कभी कभी कविता प्रवाह से बाहर होती है। कभी कभी कविता भी मात्र कलेवर होती है।। कभी कभी कविता के नाम तमाशा होता है शब्दों का गठजोड़ काव्य की भाषा होता है किन्तु समझता है जो रस का प्यासा होता है तब कवि की ,कविता की छीछालेदर होती है।।कभी कभी मैं भी अक्सर ऐसी कविताएँ लिख जाता हूँ पढ़ता हूँ ,शर्मा जाता हूँ फिर पछताता हूँ जान बूझकर मैं ऐसी गलती कर जाता हूँ ग्लानि हमें फिर फिर अपने ही ऊपर होती है।।कभी कभी भाव उमड़ते हैं तो कविता स्वतः उपजती है लय गति छंद नहीं भावों पर कविता चलती है सत्ता का मुंह कविता नहीं निहारा करती है कविता सहज चेतना, विद्रोही स्वर होती है।।कभी कभी
ग़ज़ल
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चलो माना कि ये सब चोंचले हैं। बतादो कौन से मज़हब भले हैं।। जो दुनिया जोड़ने को बोलते हैं उन्हीं सब की वज़ह से फासले हैं।। मुहल्ले के शरीफों की न बोलो उन्ही में हद से ज्यादा दोगले हैं।। ज़हाँ बदनाम है उनकी वजह से गला जो काटते मिलकर गले हैं।। जो दिल में हो वो मुंह पे बोलते हैं वो अच्छे हैं बुरे हैं या भले हैं।। जो ऊँचे लोग हैं उनसे तो अच्छे मुहल्लों के हमारे मनचले हैं।। अभी भी प्यार बाकी हैं ज़हाँ में अभी भी लोग कितने बावले हैं।।
ग़ज़ल
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ग़ज़ल कह रहा हूँ इसी जिंदगी पर। कोई हैफ है मेरी संजीदगी पर ।। कहाँ काम आता वो सजना संवरना कोई मर मिटा जब मेरी सादगी पर।। दुआ कर कि बरसे शराबों के बादल करम कर दे साक़ी मेरी तिश्नगी पर।। कंवल जैसे तुम हो भ्रमर मेरा मन है कोई शक है क्या मेरी आवारगी पर।। शबनम की बूंदों से लबरेज गुल तुम कोई शेर कह दूँ तेरी ताज़गी पर।। --सुरेश साहनी
गीत/ग़ज़ल
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झोंपड़ियों से ही विकास के मानक बनते हैं। छोटे प्रकरण से ही बड़े कथानक बनते हैं।। हर गाथा के पीछे वर्षों मेहनत होती है तुमको क्या लगता है सभी अचानक बनते हैं।। अपने अंदर कृष्ण सरीखे गुण तो ले आओ यूँ ही नहीं सुदामा सबके याचक बनते हैं।। माताएं जब जीजाबाई जैसी होती हैं तभी शिवाजी भीम सरीखे बालक बनते हैं।। निष्ठ और प्रतिबद्ध रहें यह अपने ऊपर है हम दर्शन देते हैं या फिर दर्शक बनते हैं।।
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कहते हैं नफ़रत खुद को खा जाती है इस डर से कुछ लोग मुहब्बत सीख गए।। जान तुम्हारी आँखों में हैं। रात हमारी आँखों में हैं।। हम भी देखे आखिर क्या क्या ख़्वाब तुम्हारी आँखों में है।। रस के प्याले होठ तुम्हारे और ख़ुमारी आँखों में है।। सब ढूंढ़े हैं महफ़िल महफ़िल किन्तु कटारी आँखों में है।। अच्छा अब तो सो जाने दो नींद बिचारी आँखों में है।।
ग़ज़ल
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चिंता रुपी चूहे नींदे कुतर गए। सपने रातों बिना रजाई ठिठुर गए।। ग़म के सागर में हिचकोले खाने थे तुम भी कितनी गहराई में उतर गए।! परी कथाओं के किरदार कहाँ ढूंढें दादा दादी नाना नानी किधर गए।। कितनी मेहनत से चुन चुन कर जोड़े थे गोटी सीपी कंचे सारे बिखर गए।। बचपन जिधर गया मस्ती भी उधर गयी बिगड़ा ताना बाना जब हम सँवर गए।।
ग़ज़ल
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कितनी तकलीफों से कितनी मुश्किल से। दूर हुआ जाता हूँ अपने हासिल से।। हठ करता है प्यार किरायेदारी में लाख निकालो पर कब जाता है दिल से।। उसके प्यार में मरने की अभिलाषा है यार सिफारिश कर दो मेरे क़ातिल से ।। राहों ने जीवन भर साथ निभाया है हम ही दूर रहे हैं अपनी मन्ज़िल से।। हम तो लड़कर ही आज़ादी लाये थे भीख नहीं मांगी थी हमने चर्चिल से।। पहले जितना नेह कलम कागज से था अब उससे भी बढ़कर है मोबाइल से।।
ग़ज़ल/गीत
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आंसू एक न रोने देना मेरे बाद उसे। तनहा भी मत होने देना मेरे बाद उसे।। मेरे बाद हमारी यादें मिलने आएँगी यादों में मत खोने देना मेरे बाद उसे ।। थोड़ी जिम्मेदारी हमपर अब भी बाकी है उनका बोझ न ढोने देना मेरे बाद उसे।। मेरे रहते आंसू उसके गाल न छू पाये तुम दामन न भिगोने देना मेरे बाद उसे।। वो घबरा जाती है अब भी तनहा होने पर ये एहसास न होने देना मेरे बाद उसे ।। ये सन्देश हृदय में रखना मत बिसरा देना तब कुछ और अधिक संजोना मेरे बाद उसे।।
गजल
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तुम भी कितने बदल गए हो। पहले जैसे कम लगते हो।। शहर क्या गए तुम तो अपनी गांव गली भी भूल गए हो।। कम के कम अपनी बोली में क्षेमकुशल तो ले सकते हो।। मैं भी कहाँ बहक जाता हूँ तुम भी कितने पढ़े लिखे हो।। मैं ठहरा बीते जीवन सा तुम अब आगे निकल चुके हो।। पर मैं राह निहार रहा हूँ देखें कब मिलने आते हो।। मैं यूँ ही बकता रहता हूँ तुम काहे दिल पर लेते हो।।
ग़ज़ल
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इस सफ़र की इन्तेहाँ मत पूछिये। कौन जायेगा कहाँ मत पूछिए।। हो सके तो दर्द मेरा बाँटिये हमसे जख़्मों के निशाँ मत पूछिए।। जब की बेघर हो गए हम जिस्म से लामकाँ से अब मकाँ मत पूछिए।। बेखबर हैं बेसरो-सामा है हम बेवजह हाले-जहाँ मत पूछिये।। दार पे जिसकी वजह से चढ़ गए अब वो तफ़सील-ए-बयाँ मत पूछिए।। साफ़ दिखता है मेरा घर जल गया हर तरफ क्यों है धुआं मत पूछिए।।
ग़ज़ल
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सिर्फ़ दुनिया नहीं मुक़ाबिल है। मेरे अन्दर भी एक क़ाबिल है।। मुझको बे-जिस्म क्या करेगा वो हाँ मगर साजिशों में शामिल है।। नेमतें जब मिली तो खलवत में बाईस-ए-ज़िल्लतें तो महफ़िल है।। अब मैं शिकवे गिले नहीं करता ये मेरी ज़िंदगी का हासिल है।। सुबह दैरो-हरम ही मंजिल है शाम को मयकदा ही मंजिल है।। तू न ऐसे नज़र झुकाया कर सब कहेंगे क़ि तूही क़ातिल है।।
गजल
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क्या को क्या दिखला देते हैं। नये दौर के आईने हैं।। वो ही बड़के देशभक्त हैं आज देश जो बेच रहे हैं।। नेता जी का बीपी कम है मत सोचो ग़म में डूबे हैं।। अभी चुनावों के चक्कर में हम उनके हैं वो मेरे हैं।। वरना उनके घर के चक्कर हरदम जनता ही फेरे हैं।। गिरगिट शर्मिंदा हैं क्योंकि नेता बहुरंगी दिखते हैं ।। उन बेचारे घड़ियालों से बढ़कर संसद में बैठे हैं।।
ग़ज़ल
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उसे नाकाम रहने की बड़ी कीमत मिली है। किसी अगियार दल में अब उसे इज़्ज़त मिली है।। उसके बाप उसे कम चाहते थे कह रहा है पड़ोसी की दुआ से अब उसे बरकत मिली हैं।। अपने बाप को अपना के वो गुमनाम ही था गधे को बाप कहने से उसे शोहरत मिली है।। कभी रोजी औ रोटी के लिए मोहताज था जो सियासत से उसे बेइंतेहा दौलत मिली है।। उसी नेता से जनता को मिला क्या हम से पूछो महज बेरोजगारी भूख और ज़िल्लत मिली है।।
ग़ज़ल
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आप इक कायदा बना दीजे। हो सके फासले मिटा दीजै।। मन में कोई मलाल मत रखिये जी में आये तो कुछ सजा दीजे।। इश्क़ करना गुनाह है गर तो प्यार की हथकड़ी लगा दीजे।। कुछ तकाज़े हैं आप की ज़ानिब आप बदले में मुस्करा दीजै।। क्या निगाहों से वार करते हैं कुछ हमें पैंतरे सीखा दीजै।। कुछ नहीं तो हमारी हद क्या है आप ही दायरा बता दीजै।। आज दिल कुछ बुझा बुझा सा है इक पुरानी गजल सुना दीजै।।
गजल
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अब कहीं दैरो-हरम से दूर चल। हर सियासी पेंचों-ख़म से दूर चल।। घटती बढ़ती उलझनों की बेबसी जिंदगी इस ज़ीरो-बम से दूर चल।। कलम खेमों में न हो जायें क़लम हो न जाए सच कलम से दूर चल।। कौन अब आवाज़ देगा बेवजह चल दिया तो हर वहम से दूर चल।। अब तो खलवत से तनिक बाहर निकल अब तो एहसासे-अदम से दूर चल।। चल कि अब हर इल्तिज़ा से दूर चल चल कि अब रंज़ो-अलम से दूर चल
रुबाई
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तखल्लुस से कभी हारे कभी उन्वान से हारे। हम अपने आप पर थोपी गयी पहचान से हारे।। लड़ाई हारने का दुःख न होता सामने लेकिन हमें दुःख है की हम हारे तो इक शैतान से हारे।। कहाँ जीए कहाँ पैदा हुए थे। बताएं क्या कि हम क्या क्या हुए थे।। तुम्हें लगता है कुछ आसान होगा चढ़े सूली पे तब इसा हुए थे।। हमने कब अधिकार से माँगा तुम्हें। हाँ मगर अधिकार भर चाहा तुम्हें।। झूठ क्यों ताउम्र के वादे करूँ जब तलक जिन्दा हूँ चाहूँगा तुम्हें।।
नज़्म
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नींद गायब सुकून गायब है। जिस्मे-फ़ानी से खून गायब है।। किस की ख़ातिर जियें मरें किसपर सब तो अपनी रवानियों में हैं। और सच पूछिये वफ़ादारी सिर्फ किस्से-कहानियो में हैं फिर जो रह रह उबाल खाती थी अब वो जोशो जूनून गायब है।। कोई उम्मीद हो तवक्को हो कोई मन्ज़िल, तलाश हो कोई जिंदगी जीने की वजह तो हो कुछ बहाना हो आस हो कोई आज तुम ही नही तो लगता है हासिले-कारकून गायब है।
कविता
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जो पुचकारे फिर क़त्ल करे हम ऐसा कातिल चुनते हैं। हम भुखमरी लाचारी को अपना मुस्तक़बिल चुनते हैं।। फिर हमको अपने क़ातिल का मज़हब भी ध्यान में रखना है। जो अपनी दीन का कातिल हो उसके हाथों ही मरना है ।। मरने वाले को मोहलत दे वो नेक रहमदिल चुनते हैं।। कोई झंडा हो हर्ज नहीं कोई डंडा हो हर्ज नहीं बस सौदागर वो अच्छा हो मुल्ला पंडा हो हर्ज नहीं जब मरने की आज़ादी है हम आलाक़ातिल चुनते हैं।।
गीत
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मेरी निजताओं को क्यों मंचो पर गाते हो। फिर क्योंकर हमपर अगणित प्रतिबन्ध लगाते हो।। हम जो एक दूसरे के नैनों में बसते हैं हम जो एक दूसरे में ही खोये रहते हैं इन बातों को क्यों चर्चा के विषय बनाते हो।। आखिर हमने प्रेम किया कोई अपराध नहीं अंतरंग बातें हैं अपनी जन संवाद नहीं अंतरंगता को क्यों इश्तेहार बनाते हो।। फिर अपने संबंधों की भी इक मर्यादा है मानवीय है ईश्वरीय है कम या ज्यादा है महफ़िल में क्यों मर्यादा विस्मृत कर जाते हो।। हम को एक दूसरे के दिल में ही रहने दो सम्बन्धों की प्रेम नदी को कलकल बहने दो क्यों तटबन्ध तोड़कर उच्छ्रंखल हो जाते हो।।
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मधुलिके जब तुम नहीं हो व्यर्थ है मधुमास कोई। पंख कतरे जा चुके जब क्या करे आकाश कोई।। धूल धूसरित रास्तों पर लूट चुका है कारवां भी फिर मेरे हिस्से का सूरज खो चुका है आसमां भी अब तिमिरमय रास्तों का क्या करे आभास कोई।।मधुलिके आस्था मेरी नहीं है मकबरों में या महल में हम तुम्हारे साथ रहते कन्दरा में या महल में तुमसे ही लगता था प्रियतम घर मेरा रनिवास कोई।। एक सुन्दर सी कहानी अपने पहले ही चरण में खत्म कुछ ऐसे हुयी ज्यों शस्त्र रख दे पार्थ रण में द्यूत में ज्यों हार जीवन फिर चला बनवास कोई।।मधुलिके
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हमें फुर्सत कहाँ थी आज़माते । तुम्हे हिम्मत थी मेरे दिल से जाते।। बताते दर्द तो किसको बताते छुपाते दर्द तो किससे छुपाते।। जो दिल में रह के भी तुमने न देखा तो दिल के जख्म फिर किसको दिखाते।। मेरी आवाज़ को तुम सुन न पाए भला फिर दूर से किसको बुलाते।। मेरे क़ातिल नहीं हैं हाथ तेरे यक़ीनन कांपते खंज़र चलाते।। मुहब्बत का भरम रहने दो प्यारे किसी का दिल नहीं ऐसे दुखाते।।