हम तुम्हारे ख़्वाब लेकर जी रहे हैं।
और हैरां हैं कि क्यूँकर जी रहे हैं।।

बस गए हैं बस्तियों में जानवर
इसलिए जंगल में आकर जी रहे हैं।।

गांव की आबो- हवा में थी घुटन
चिमनियों में साँस पाकर जी रहे हैं।।

रूह तब तक थी जहाँ तक था ज़मीर
अब फ़क़त जिस्मों के पैकर जी रहे हैं।।

कौन कहता है बड़ा हैं ये शहर
लोग दड़बों में सिमटकर जी रहे हैं।।

अब हुकूमत पत्थरों के साथ हैं
आईने फितरत बदलकर जी रहे हैं।।

मेरे अंदर  एक शायर था कभी
अपने शायर को दफन कर जी रहे हैं।

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