दो कविताएँ।
ये कहानी फिर अधूरी रह गयी।
अनगिनत बातें जरूरी रह गयी।।
हुश्न क्या था इश्क़ का कोई लिबास
झुर्रियों में खानापूरी रह गयी।।
मैं किसी से चर्चा में जाने क्या क्या कह गया।खैर!!!
मैं इक मूरख बंदा हूँ।
कवि लेखक हूँ वक्ता हूँ।।
एक बड़ी बीमारी है
सबके दुःख में रोता हूँ।।
सुख में हो न हो सबके
दुःख में शामिल रहता हूँ।।
सारी दुनिया सोतो है
मैं तब भी जागा करता हूँ।।
कभी ध्यान में डूबा तो
सब कहते हैं गाता हूँ।।
वैसे अपनी रोजी है
मैं लोहे को गढ़ता हूँ ।।
अनगिनत बातें जरूरी रह गयी।।
हुश्न क्या था इश्क़ का कोई लिबास
झुर्रियों में खानापूरी रह गयी।।
मैं किसी से चर्चा में जाने क्या क्या कह गया।खैर!!!
मैं इक मूरख बंदा हूँ।
कवि लेखक हूँ वक्ता हूँ।।
एक बड़ी बीमारी है
सबके दुःख में रोता हूँ।।
सुख में हो न हो सबके
दुःख में शामिल रहता हूँ।।
सारी दुनिया सोतो है
मैं तब भी जागा करता हूँ।।
कभी ध्यान में डूबा तो
सब कहते हैं गाता हूँ।।
वैसे अपनी रोजी है
मैं लोहे को गढ़ता हूँ ।।
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