यक्ष प्रश्न बन खड़ा सामने।
बढ़ते डग जो लगा थामने।
नैतिकता पर हावी भौतिक-
जरूरतों को किया काम ने।।
ये चारो पुरुषार्थ कहाते।
वर्णन करते नहीं अघाते।
चारो वेद पुराण अष्टदश
छहो उपनिषद ये ही गाते।।
किन्तु धर्म की यह परिभाषा।
जो नारद गीता की भाषा।
यह मेरे मन को भाती है
दे देती है सहज दिलासा।।
जिससे हो इस लोक में उन्नति।
ब्रम्हलीनता जिसकी परिणति।
सत्य कहें तो यही धर्म है
जीते उन्नति मरते सदगति।।

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