मैं यथार्थ से अनजान था।
मुझे दोस्तों पे गुमान था।।
क्या गिला जो सबने भुला दिया
तुर्बत का मैं सामान था।।
जिसे घर कहा वो सराय थी
मैं मकीं न था मेहमान था।।
मैं चला तो क्या मेरे हाथ था
न जमीन थी न मकान था।।
मैंने जर जमीन जमा करी
मुझे अपने कल का पता न था।।
मुझे एक पल न सिवा मिला
जहाँ सौ बरस इमकान था।।
मैं खुदा से इश्क़ न कर सका
गो कि काम ये आसान था।।
मुझे दोस्तों पे गुमान था।।
क्या गिला जो सबने भुला दिया
तुर्बत का मैं सामान था।।
जिसे घर कहा वो सराय थी
मैं मकीं न था मेहमान था।।
मैं चला तो क्या मेरे हाथ था
न जमीन थी न मकान था।।
मैंने जर जमीन जमा करी
मुझे अपने कल का पता न था।।
मुझे एक पल न सिवा मिला
जहाँ सौ बरस इमकान था।।
मैं खुदा से इश्क़ न कर सका
गो कि काम ये आसान था।।
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