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Showing posts from September, 2025
 तुम हमारी स्वास में जब आ बसे। हम तुम्हारी धड़कनों में जा बसे।। इश्क़ की दुनिया हमारी है तो है लाख दौलत की कोई दुनिया बसे।। दिल कन्हैया का है या महफ़िल कोई रुक्मिणी राधा कि या मीरा बसे।। प्रेम की है वीथिका अति सांकरी इसमें सम्भव ही नहीं दूजा बसे।। उस गली में लेके चल डोली मेरी जिस गली में मेरा मनचंदा बसे।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुझको तलाशना कोई मुश्किल न था मगर  हद है कि मैं ही मुझ से तलाशा नहीं गया।।
 हम अईसन प्रोफाइल बानी। अपने में अझुराईल बानी।। कइसे वाल देखायीं आपन टैगाइल टैगाइल बानी।।
 चलना है तो कहिए चले चलते हैं ज़हां से फिर ये न गिला हो मिरा रस्ता नहीं देखा।।साहनी
 आपकी तस्वीर ही में खो गये। हुस्न की तासीर ही में खो गये। खो गये हम ख़्वाब में जागे तो फिर ख़्वाब की ताबीर ही में खो गये।।साहनी
 कहीं भी गुल न गये फेंकने को दिल अपना वो तितलियां ही इधर से उधर मचलती रहीं।।साहनी
 रात भर का ही बसेरा है ज़हां। क्यों समझते हो कि डेरा है ज़हां।। है हमारा कुछ यहां कैसे कहें सिर्फ़ मेरा और तेरा है ज़हां।।
 सिर्फ़ ख़ुद के ही रह न जायें हम। कुछ तो औरों के काम आयें हम।। ख़ैर भगवान बन न पायेंगे ख़ुद को इन्सान तो बनायें हम।।साहनी
 चलो मुस्कुराने की आदत बनायें। कि हँसने हँसाने की आदत बनायें।। कभी मुस्कुराने की आदत बनायें। कभी खिलखिलाने की आदत बनायें।। ज़माना सुनेगा ठठाकर हँसेगा चलो ग़म छुपाने की आदत बनायें।। सफ़र में मक़ामात आते रहेंगे नये हर ठिकाने की आदत बनायें।। किसी के निवालों पे पलने से बेहतर कमाकर के खाने की आदत बनायें।। सभी को है जाना सुरेश एक दिन जब तो हँस कर ही जाने की आदत बनायें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी भर जिसे गुनगुनाते रहे गीत मेरा उसी ने सुना ही नहीं वो मिला प्यार जिससे कि था ही नहीं प्यार मेरा जो था  वो मिला ही नहीं।।
 जिस्म फ़ानी तो मेरा खाक़ हुआ। क्या गिरेबान कोई चाक हुआ।। स्याह दामन तो कहाँ से होता बेवफ़ा और भी शफ्फाक़ हुआ।।
 सिंह कल तक सुप्त थे जो उठ चुके हैं  आज भारत कर चुका नवजागरण है। विश्वगुरू निर्देश पाकर  जग चलेगा आज उस अभियान का पहला चरण है राम का निर्माण उनका वनगमन था कर्बला इस्लाम् का पुनरागमन  था कुछ है यूंही हर युवा आतुर हवन को मृत्यु से मिल जीत को करना वरण है
 इक सत्य सुनो इस प्राणी से क्या क्या न मिला निर्माणी से फिर भी कृतज्ञता के दो स्वर प्रस्फुटित हुये कब वाणी से
 प्यार में नाम जैसे ही जपना पड़ा। जाने कितनों को अपना समझना पड़ा। स्वप्न साकार हो ना सके क्या हुआ तब हक़ीक़त को सपना समझना पड़ा।। मुक्तक
 हार मिली थी हार नहीं था कैसे मुझ पर दांव लगाया अग्नि सुता हूँ वस्तु नहीं मैं किस एवज में भाव लगाया द्यूत पाप है धर्म नहीं है हर युग  के प्रत्येक चरण में मैं दुर्योधन को भी वरती अगर जीतता उन से रण में कहाँ गया गाण्डीव तुम्हारा  गदा कहाँ है भीम तुम्हारी क्यों असहाय हुई सबला से पाँच पाँच पतियों की नारी
 फिर जाने की ऐसी भी क्या जल्दी थी इस आपाधापी में सब कुछ छोड़ गये तुमको मुड़ना था या राह बदलनी थी इस ज़िद में तुम अपनों से मुँह मोड़ गये।।साहनी
 एक प्रायोजित विज्ञापन सुन रहा था। जिसमें अरबी-फारसी के कुछ कम प्रचलित और क्लिष्ट शब्दों में कहे गये कुछ शेर पढ़कर पूछा जा रहा है कि नहीं समझे ना। अगर आपको इन अल्फाजों के मआनी मालूम होते तो ये आसानी से समझ मे आते ,और आप इन खूबसूरत शेरों का आनंद ले सकते थे।  अब ये तो एक विज्ञापन था , लेकिन किसी भी अजनबी ज़बान को नहीं समझ पाने का मतलब हम अज्ञानी तो नहीं हुये ना। और आप फ्रेंच में कोई कविता या आलेख सुनाकर मुझसे उसे समझने की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं। ये तो उसी प्रकार की शठता , धूर्तता या मूढ़ता है जैसे कि कोई अंग्रेजीदां किसी गाँव देहात में गिटपिटाता फिरे, और स्वयम को विद्वान समझने की भूल करे। ऐसी प्रवृत्ति के लोग ही प्यास लगने पर आब आब कहते हुये चल निकलते हैं।बिल्कुल कुछ ऐसे जैसा कि कहा गया है:-      काबुल गए मुग़ल बन आए, बोलन लागे बानी।  आब आब कर मर गए, सिरहाने रहा पानी।।   भाई मेरा तो साफ मानना है कि मैं जिस माटी में पला बढ़ा हूँ, या जिस माटी के जनसामान्य से मेरे/हमारे  सरोकार जुड़े हैं , मैं उनके लिये लिखता हूँ और उनके लिए ही लिखते रहने की तमन्ना है। ...
 क्या जयंती मनाना किसी देश की।। क्या जयंती किसी काल परिवेश की।। जन्म ही कब लिया मेरे देवेश ने अवतरण तिथि है ये मेरे विध्नेश की।।मुक्तक
 हम मनाते हैं बस देह का जन्मदिन। एक अतिथि के लिये गेह का जन्मदिन।। राग का जन्मदिन जन्मदिन द्वेष का  क्लेश का  जन्मदिन नेह का जन्मदिन।।साहनी मुक्तक
 ग़ज़ल  कोई नामानिगार बन बैठा कोई दीवानावार बन बैठा सोच में था कि कुछ बनूँ लेकिन दिल ही उनका शिकार बन बैठा।।साहनी
 ये नहीं है कि हम पढ़े न गये। कौन कहता है हम सुने न गये।। लोग गिर गिर पड़े वहाँ जाकर हम बुलाने भी गये न गये।।  ये नहीं था कि हम न बिक पाते हम ही नज्मों को बेचने न गये।। आपसे चाय की तलब में हम एक अरसे से मयकदे न गये।।साहनी
 वक़्त से बेहुज़ूर हूँ मैं भी।। इस तरह बेक़ुसूर हूँ मैं भी।। कौन मेरे क़रीब आयेगा आज तो ख़ुद से दूर हूँ मैं भी।। साथ यूँ भी नहीं चलोगे तुम और फिर थक के चूर हूँ मैं भी।। ताबिशें अपनी मत दिखा नादां जान ले कोहे तूर हूँ मैं भी।। उनकी मग़रूरियत से हर्ज़ नहीं क्योंकि कुछ कुछ ग़यूर हूँ मैं भी।। कोई दावा नहीं मदावे का इब्ने-मरियम ज़रूर हूँ मैं भी।। मत कहो साहनी अनलहक़ है पर उसी का ज़हूर हूँ मैं भी।। बेहुज़ूर/अनुपस्थित बेक़ुसूर/निरपराध ताबिशें/गर्मी कोहे-तूर/आग का पहाड़ मगरूरियत/घमण्ड ग़यूर/स्वाभिमानी मदावा/इलाज़ इब्ने-मरियम/पवित्र माँ का बेटा , मसीह अनल-हक़/अहम ब्रम्हास्मि, ईश्वर ज़हूर/प्राकट्य सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 होठ तुमको गुनगुनाना चाहते हैं प्रियतमें तुम गीत हो क्या। नैन जिस पर रीझ जाना चाहते हैं तुम वही मनमीत हो क्या।।  कर्ण मन के चाहते है  क्यों श्रवण  हर क्षण तुम्हारा देह लय क्यों ढूंढती है संगतिय आश्रय तुम्हारा  नाद अनहद जाग जाना चाहते हैं तुम वही संगीत हो क्या।।  प्रीति प्रण की जीत हो क्या........ क्यों रसेन्द्रिय चाहती है  नित्य प्रति वर्णन तुम्हारा कामना की कल्पना है रतिय आलिंगन तुम्हारा जो शिवे मधुयामिनी में गूँजता है तुम वही नवगीत हो क्या।। साधना अभिप्रीत हो क्या........
 कुछ लोग ख़ुद को वरिष्ठ, गरिष्ठ या साहित्य के क्षेत्र का बड़ा ठेकेदार होने के मुगालते में अक्सर नई कलमों के कार्यक्रम/आयोजन आदि के बारे में पोस्ट डालने पर नाराजगी या खिन्नता अथवा एतराज वाली पोस्ट्स डाला करते हैं। भाई इसका मतलब आप अदीब नहीं पूरी तरह से बेअदब ,  खैर जो भी हों हैं।    दरअसल मध्यप्रदेश के एक तथाकथित धुरन्धर हास्य कवि उनके व्हाट्सएप ग्रुप और फेसबुक पर अपने काव्य कार्यक्रमों के फोटो-बैनर इत्यादि पोस्ट कर देते होंगे। उन महाशय ने  नवोदितों को चेतावनी के लहजे में लिखा कि अगर वे इस पर उतर आये तो नवोदित परेशान हो जाएंगे क्योंकि उनके  सैकड़ों कार्यक्रम लगे रहते हैं। उन्होंने जाने कितनों को दिल्ली लेवल का कवि बना दिया । और जिस पर दृष्टि वक्र हुई तो उसका सिंह भी बकरी हो गया। वैसे  अगर ये इतने धुरन्धर होते तो इन्हें अपने बारे में बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बक़ौल डॉ सागर आज़मी    ," तुझे एहसास है गर अपनी सरबुलन्दी का       तो फिर हर रोज़ अपने हाथ नापता क्यों हैं।।,      मुझे लगा कि ऐसे लोगों को बताना जरूरी  है कि ...
 बारहा उसपे एतमाद आया। जिसको ख़ुद पर न ए'तिक़ाद आया आज मेले में वो भी याद आया। कितना तन्हा शबे-मिलाद आया।। नाम भी तो बदल लिया उसने फिर कहाँ वो इलाहाबाद आया।। जीस्त तो कब की जा चुकी थी पर बाद मरने के मुझको याद आया।।साहनी
 कौन मेरे क़रीब आयेगा आज तो ख़ुद से दूर हूँ मैं भी।। साथ यूँ भी नहीं चलोगे तुम और फिर थक के चूर हूँ मैं भी।। ताबिशें अपनी मत दिखा नादां जान ले कोहे तूर हूँ मैं भी।।
 फिर से अपना रुआब लेना है। हाँ हमें हर हिसाब लेना है।। वक़्त ने ही सवाल दागे थे वक़्त ही से जवाब लेना है।। इनसे कैलाश छीन कर उनसे अपना रावी चिनाब लेना है।। शेष कश्मीर ही नहीं तुझसे सिंध और पंजआब लेना है।।
 वे हिंदी के मित्र पुरुष हैं।  पर सेवा में पितृ पुरुष हैं।। साहित्यिक उत्सव करते हैं आयोजन अभिनव करते हैं नई कलम को सदा बढ़ाते निश्छल मन से उन्हें पढ़ाते भावुक सरल चरित्र पुरुष हैं। नव कवियों के पितृ पुरुष हैं।। सबको हैं उत्साहित करते  प्रतिभायें सम्मानित करते  पर सम्मान नहीं लेते हैं कुछ प्रतिदान नहीं लेते हैं सचमुच बड़े विचित्र पुरूष हैं। ये कविता के पितृ पुरुष हैं।। वाणीपुत्र विनोद त्रिपाठी हैं वरिष्ठ कलमों की लाठी नई कलम को यदि बल देते शुष्क कलम को भी जल देते मन के स्वच्छ पवित्र पुरुष हैं। वे भाषा के पितृ पुरूष हैं।। सुरेश साहनी
 वर्षों से अपनी ख़ामोशी सुनना सीख रहे हैं। अपनी बल खाती पेशानी पढ़ना सीख रहे हैं।।
 आज वो ही पढ़ी ग़ज़ल मैंने। जो किसी से सुनी थी कल मैंने।। वैसे पढ़ सकते थे ग़ज़ल अपनी पर बड़ों की करी नकल मैंने।।साहनी
 दिल ने ख़ादिम बना दिया मुझको। गो मुलाज़िम बना दिया मुझको।। इश्क़ है जुर्म और दुनिया ने एक मुजरिम बना दिया मुझको।। हम तुम्हारे वकील बन जाते तुमने मुल्ज़िम बना दिया मुझको।। नादिम/लज्जित
 इतना सारा कैसे तुम कह लेते हो। फिर भी प्यारा कैसे तुम कह लेते हो।। तुम कहते हो दिल इस पर कब राजी है सचमुच यारा कैसे तुम कह लेते हो।। जबकि सबका दिल तुम जीता करते हो ख़ुद को हारा कैसे तुम कह लेते हो।।   खोए रहते हो जब अपनी दुनिया मे  हो बंजारा कैसे तुम कह लेते हो।।। साहनी
 फरीहा नक़वी फरमाती हैं,"  हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं  इक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं ।। माज़रत के साथ कहना पड़ रहा है, "वक़्त बहुत है हम लोगों के पास मगर तोहफे में इक घड़ी नहीं दे पाते हैं।।, अब होना तो यही चाहिये था कि मामला शांत करने या कराने के लिए कुछ बड़ी लेखिकायें घड़ी दे सकती थीं। लेकिन फेसबुक को घड़ी विवाद में अखाड़ा बना दिया। जिसमें बड़े तो बड़े हम जैसे छुटभैये कवि भी कूद पड़े।लेकिन एक बात मेरी भी समझ में नहीं आयी कि हम भारतीय घड़ी को इतना उपयोगी क्यों मानते हैं। जापान का प्रधानमंत्री सोचता है जहाँ चार घण्टा लोग आरती नमाज में गुजार देते हैं ,वहाँ बुलेट ट्रेन की ज़रूरत आश्चर्य का विषय है। हमारे यहाँ तो लोग सालोसाल साधना में गुजार देते हैं। मुनव्वर साहब ने कहा भी है कि, " ये सोच कर कि तिरा इंतिज़ार लाज़िम है तमाम-उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा।।,     और हम है कि घड़ी को लेकर घड़ियाल हुए जा रहे हैं।हमारे शहर में दसियों घण्टाघर थे। आज शायद दो एक की सुईयाँ सही सलामत हों , और हम है कि एक घड़ी को लेकर खुद बिगबेन हुये जा रहे हैं।अरे इतना महत्वपूर्ण है तो कबीर की तरह...
 यूँ तो दुनिया को दिखते हैं चलते फिरते पूरे हम। पर अक्सर ख़ुद को मिलते हैं आधे और अधूरे हम।।
 अपने मुझे लगे हैं सारे बशर ज़हां के। जो ग़ैर मानते हैं जाने हैं वो कहाँ के।। यां छोड़ कर के जाना है जबकि जिस्मे-फ़ानी हम ख़ुद को मान बैठे मालिक हैं इस मकां के।।
 सच मे होते सभी अगर अपने। यूँ नहीं घोलते ज़हर अपने।। आदमी का कोई भरोसा क्या आज होते हैं जानवर अपने।। ज़िन्दगी चार दिन का डेरा है छूट जाते हैं दैरो-दर अपने।। ग़ैर की बदनिगाह क्या देखें अब तो होते हैं बदनज़र अपने।। कोई मरहम असर नहीं करता चाक करते हैं जब ज़िगर अपने।। तेरी दुनिया मे अजनबीपन है लौट जाऊंगा मैं शहर अपने।। थे सुकूँ की तलाश में लेकिन साहनी लौट आये घर अपने।। 14/04/2019 सुरेश साहनी,कानपुर
 ये नहीं है कि डर से बाहर हैं मुतमयिनी में घर से बाहर हैं क्या करेंगे तेरा अदम लेकर  जब अज़ल से दहर से बाहर हैं हम तो ख़ारिज हैं नज़्मगोई में  और ग़ज़लें बहर से बाहर हैं शेर होना है फिर तो नामुमकिन सारे जंगल शहर से बाहर हैं तेरे सागर में कुछ कमी होगी कितने मयकश गटर से बाहर हैं मंज़िलों की सदा से क्या लेना हम किसी भी सफ़र से बाहर हैं उस ने दुनिया से फेर ली नज़रें या कि हम ही नज़र से बाहर हैं मुतमईनी/संतुष्टि अदम/स्वर्ग अज़ल/सृष्टि के आरंभ, नज़्म/कविता ख़ारिज/अस्वीकृत, बहिष्कृत सागर/ शराब, मयकश/शराबी, गटर/नाला सदा/पुकार दहर/ बुरा समय या परिस्थिति सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बेशक़ कुछ दिन वेट करेंगे। पर ख़ुद को अपडेट करेंगे।। हिंदी डे आने वाला है खुल कर सेलिब्रेट करेंगे।।  हिंदी यूँ अपनायेंगे हम हिंदी में डीबेट करेंगे।। पिज्जा बर्गर खाएंगे हम चीनी डिश से हेट करेंगे।। अंग्रेजी है प्यार हमारा पर हिंदी संग डेट करेंगे।। मेर्रिज हिंदी में करनी है बेशक़ कुछ दिन वेट करेंगे।। पूर्ण स्वदेशी अपनाकर हम भारत अपटूडेट करेंगे।।
 क्या पता था कि यूँ निभाओगे। चार दिन में ही भूल जाओगे।। दूर हमसे चले तो जाओगे। क्या मगर ख़ुद से भाग पाओगे।। कुछ पशेमान तो ज़रूर होंगे जब ख़यालों में हम को लाओगे।। हम तुम्हें देवता बना दें क्या तुम नज़र से तो गिर न जाओगे।। जबकि ख़ुद पर तुम्हें यक़ीन नहीं फिर हमें खाक़ आजमाओगे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 तुम जो अहले वफ़ा रहे होते। फिर न यूँ आजमा रहे होते।। साथ हमने जो गीत गाया था अब भी तुम गुनगुना रहे होते।। रूठ कर जा रहे हो जैसे तुम हमको यूँ ही मना रहे होते।। उस हवेली में वो सुकून कहाँ कस्रे-दिल मे जो पा रहे होते।। तुम जो होते अदीब तो तय था हम न मातम मना रहे होते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 नाहक़ इतनी ज़िम्मेदारी ले ली है। पदवी तुमने सचमुच भारी ले ली है।। कुछ कहते हो कुछ करते हो ये क्या है  उलझन काहे इतनी सारी ले ली है।।
 गीतों का राजकुमार नहीं केवल कविता का साधक हूँ मैं चारण गान करूँ कैसे में जनगण का आराधक हूँ मैं संघर्षों का पांचजन्य जन पीड़ाओं का गायक हूँ जब जन संघर्षों के स्वर में  जनपथ पर गाया जाऊंगा मैं सफल स्वयं को समझूँगा जब जन का कवि कहलाऊंगा साहनी
 अपने अधरों पे तुम न धरते तो श्याम हम बाँसुरी नहीं होते।। तुम न होते हुये भी होते हो    हम जहाँ होके भी नहीं होते।।
 भूख जैसी ये प्यास थी मेरी। ज़िंदगानी उदास थी मेरी।। ज़िंदगी की तलाश थी मुझको ज़िन्दगी को तलाश थी मेरी।।
 वो नीम की सन्टी से तशरीफ़ उधड़ जाना स्कूल मिरा गोया दहशत का इदारा था।।साहनी
 मैं जब मर मिटा हूँ तुम्हारी अदा पर किसे ज़िन्दगी की दुआ दे रहे हो।।
 वो ख़ुदा आदमी हुआ है क्या आदमी तो कभी ख़ुदा न हुआ।। आदमी है यहीं कहाँ कम है वो किसी काम का हुआ न हुआ।। वैसे दुनिया मुझे बुरी ही लगी  यूँ तो मैं भी कभी भला न हुआ।। उसमें लत है अगर भलाई की ये नशा तो कोई नशा न हुआ।।
 सिरफिरे शोर की शिकायत है चुभ रही है उसे ये ख़ामोशी।।
 हाँ तो गद्दी पे बाप बैठे हैं। हम समझते थे आप बैठे हैं।। इस तरफ कुछ अनाप बैठे हैं। तो उधर कुछ शनाप बैठे हैं।। लोग कल  भी पढ़े लिखे कब थे अब भी अंगूठा छाप बैठे हैं।। कौन है आज दीन का मुंसिफ सब लिये दिल में पाप बैठे हैं।। राम की राह पर नहीं चलते कर दिखावे की जाप बैठे हैं।। है बरहना सुरेश इस ख़ातिर आस्तीनों में सांप बैठे हैं।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर, 9451545132 अनाप-शनाप /बेकार, दीन/ धर्म, मुंसिफ/ धर्माधिकारी, न्यायाधीश  बरहना/ नग्न
 हठधर्मी से करना आग्रह ठीक नहीं। और संत से तनिक दुराग्रह ठीक नहीं।। धर्म समन्वय सिखलाता है दुनिया को नुक्कड़ नुक्कड़ फैले विग्रह ठीक नहीं।। राग द्वेष मद मत्सर निंदा अनुचित है किसी भाँति रखना पूर्वाग्रह ठीक नहीं।। ज़्यादा चिन्ता संग्रहणी बन जाती है कुण्ठाओं का इतना संग्रह ठीक नहीं।। हां समष्टि के हित में लेना सम्यक है किंतु स्वयं के हित में परिग्रह ठीक नहीं।। कहा राम ने लक्ष्मण शर संधान करो किसी दुष्ट से अधिक अनुग्रह ठीक नहीं।। फिर सुरेश कैसे शायर हो सकता है गोचर है प्रतिकूल और ग्रह ठीक नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर  9451545132
 शोर है ग़मज़दा की ख़ामोशी। उफ्फ ये कातिल अदा की ख़ामोशी।। कब सुनेगा सदा की ख़ामोशी। कब मिटेगी ख़ुदा की ख़ामोशी।। कितनी हंगामाखेज है यारब इक तेरे मयकदा की ख़ामोशी।। शोर बरपा गयी मिरे दिल में क्यों मिरे हमनवा की ख़ामोशी।। उसकी मुस्कान बात करती है जैसे मोनालिसा की ख़ामोशी।। बोल पड़ती है उसकी गज़लों में साहनी की बला की ख़ामोशी।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 कहा था  जिसने हमें रास्ता बतायेगा। कहाँ पता था वही शख़्स लूट जायेगा।। ख़ुदा ने गोल बनाई है इसलिये दुनिया भटक भी जाये जो चाहे तो लौट आयेगा।। दुकान अपनी चलाने को ही तो कहता है सराये-फ़ानी में मौला का घर बनायेगा।। तेरी मशीन है या सिक्का कोई इकपहलू जो तुझसे दाँव लगायेगा हार जायेगा।। ख़ुदा भी इब्न-ए-आदम से यूँ परेशां है किसी को अपना ठिकाना नहीं बतायेगा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कहा किसने कि मैं घबरा गया हूँ। वहां सह कर मैं दोबारा गया हूँ।। जो सुन्दर है भला होगा यकीनन इसी धोखे पे मैं मारा गया हूँ।।
 आशना होके अजनबी ही रही। ज़िन्दगी सिर्फ़ ज़िन्दगी ही रही।। ज़िन्दगी क्यों तुझे भुला दूँ मैं तू बुरे वक्त में बुरी ही रही।। और कितना तुझे मनाते हम जाने क्या था कि रूठती ही रही।।
 ख़्वाब में उनके नज़र आने की सूरत बनती। तब कहीं दिल के सनमखाने की सूरत बनती।। काश सूरत में भी होती कोई वाज़िब सूरत  मेरे शायर के जो फिर आने की सूरत बनती।।साहनी
 जो ग्रह नक्षत्र  हमारे नहीं मिले तो क्या। कि गुण दो चार क्या सारे नहीं मिले तो क्या वफ़ा के जुगनू तो चमकेंगे तीरगी में भी कि हम मिलेंगे सितारे नहीं मिले तो क्या।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बेटे का बेटा फिर उनका पोता याद करे। यह काफी है उनको उनका अपना याद करे।। बेहतर होता उनके लेखन पर चर्चा होती लेकिन अपना बोला कोई कितना याद करे।। इतनी सारी कौन किताबें रखता है घर में चले गये अब बाबा जी का घण्टा याद करे।। लोग बिहारी , चन्द्रसखी , केशव को भूल गये इनको कल क्यों टोला और मुहल्ला याद करे।। पर सुरेश चाहेंगे बेशक़ अपने मत मानें लेकिन उनकी कविताओं को दुनिया याद करे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 बिछड़ के फिर से मेरा कारवां मिला ही नहीं। मुझे ज़मीं तो मिली आसमां मिला ही नहीं।। बिछड़ गये जो दुआओं के हाथ फिर न मिले तपिश ओ धूप मिली सायबां मिला ही नहीं।। मिली भटकती मेरी तिश्नगी सराबों में मुझे नदी में भी आबे-रवां मिला ही नहीं।। सिफ़र है मेरे लिये सब जहान के हासिल अगर मुझे मेरा अपना ज़हां मिला ही नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश। एक सहज है निर्धन भारत दूजा लगे विदेश।। यह कर्तव्य युवाओं का है धर्मध्वजा लहरायें और हमारे बच्चे शासक बन कर हुक्म चलायें मोह त्याग हमने बच्चों को भेजा पढ़ें विदेश। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... जनता आठो याम निरन्तर पैदल चल सकती है जनरल डिब्बों के वग़ैर भी गाड़ी चल सकती है टोल नहीं लेंगे पैदल से ये है छूट विशेष। एक राष्ट्र में रहते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... इन अमीर बच्चों से शिक्षित भारत शिक्षित होगा निर्धन बच्चों की शिक्षा से देश अविकसित होगा भारत में महंगी शिक्षा लाएगी बड़ा निवेश। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... कब शिक्षा को है हमने पूँजी से बेहतर माना है शिक्षक को भी श्रमजीवी सम चाकर ही माना है शिक्षा से भी अधिक बड़ा है पूँजी का परिवेश।। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 चुप रहो इक मुकम्मल ग़ज़ल बन सके प्यार का खूबसूरत महल बन सके ताज तैयार होने तलक चुप रहो।। ख़्वाब तामीर होने तलक चुप रहो पूर्ण तस्वीर होने तलक चुप रहो घर के संसार होने तलक चुप रहो।। राज तकरार में हैं छुपे प्यार के प्यार बढ़ता नहीं है बिना रार के रार मनुहार होने तलक चुप रहो।। आप इनकार करते हो जब प्यार से प्रेम की जीत होती है इस  हार  से मन से इक़रार होने तलक चुप रहो।। चुप रहो प्यार होने तलक चुप रहो।।...... मेरे चर्चित गीत "चुप रहो' के कुछ अंश सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 उस भटकने का फ़ायदा ये मिला आज हम रास्ता बताते हैं।।साहनी
 आसमां चांद तले ले आओ। ये कि दो चार भले ले आओ।। एक कुनबा है ज़माना सारा फ़िक़्र पालो या पले ले आओ।। अपने रिश्तों में हरारत ऐसी तल्खियाँ जिससे गले ले आओ।। एक मज़हब तो हो ऐसा जिस पर नफरतों की न चले ले आओ।। एक सूरज तो उम्मीदों वाला पेशतर शाम ढले ले आओ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 वहीं लोग मंचों पे छाये हुये हैं।  जो ग़ैरों की नज़्में चुराये हुये हैं।। बताते हैं दुबई की फ्लाइट है उनकी टिकट गांव का पर कटाये हुये हैं।।साहनी
 वो निगाहें थीं या कि मधुशाला कैसे कह दूँ कि पी नहीं मैंने।।साहनी
 मिल रही है जो आशीष ले लीजिये। अपने गुरुओं की बख्शीश ले लीजिये।। अब के आयोजकों का भरोसा नहीं मंच से पेशतर फीस ले लीजिये।।साहनी