तुम हमारी स्वास में जब आ बसे। हम तुम्हारी धड़कनों में जा बसे।। इश्क़ की दुनिया हमारी है तो है लाख दौलत की कोई दुनिया बसे।। दिल कन्हैया का है या महफ़िल कोई रुक्मिणी राधा कि या मीरा बसे।। प्रेम की है वीथिका अति सांकरी इसमें सम्भव ही नहीं दूजा बसे।। उस गली में लेके चल डोली मेरी जिस गली में मेरा मनचंदा बसे।। सुरेश साहनी कानपुर
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Showing posts from September, 2025
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चलो मुस्कुराने की आदत बनायें। कि हँसने हँसाने की आदत बनायें।। कभी मुस्कुराने की आदत बनायें। कभी खिलखिलाने की आदत बनायें।। ज़माना सुनेगा ठठाकर हँसेगा चलो ग़म छुपाने की आदत बनायें।। सफ़र में मक़ामात आते रहेंगे नये हर ठिकाने की आदत बनायें।। किसी के निवालों पे पलने से बेहतर कमाकर के खाने की आदत बनायें।। सभी को है जाना सुरेश एक दिन जब तो हँस कर ही जाने की आदत बनायें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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एक प्रायोजित विज्ञापन सुन रहा था। जिसमें अरबी-फारसी के कुछ कम प्रचलित और क्लिष्ट शब्दों में कहे गये कुछ शेर पढ़कर पूछा जा रहा है कि नहीं समझे ना। अगर आपको इन अल्फाजों के मआनी मालूम होते तो ये आसानी से समझ मे आते ,और आप इन खूबसूरत शेरों का आनंद ले सकते थे। अब ये तो एक विज्ञापन था , लेकिन किसी भी अजनबी ज़बान को नहीं समझ पाने का मतलब हम अज्ञानी तो नहीं हुये ना। और आप फ्रेंच में कोई कविता या आलेख सुनाकर मुझसे उसे समझने की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं। ये तो उसी प्रकार की शठता , धूर्तता या मूढ़ता है जैसे कि कोई अंग्रेजीदां किसी गाँव देहात में गिटपिटाता फिरे, और स्वयम को विद्वान समझने की भूल करे। ऐसी प्रवृत्ति के लोग ही प्यास लगने पर आब आब कहते हुये चल निकलते हैं।बिल्कुल कुछ ऐसे जैसा कि कहा गया है:- काबुल गए मुग़ल बन आए, बोलन लागे बानी। आब आब कर मर गए, सिरहाने रहा पानी।। भाई मेरा तो साफ मानना है कि मैं जिस माटी में पला बढ़ा हूँ, या जिस माटी के जनसामान्य से मेरे/हमारे सरोकार जुड़े हैं , मैं उनके लिये लिखता हूँ और उनके लिए ही लिखते रहने की तमन्ना है। ...
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वक़्त से बेहुज़ूर हूँ मैं भी।। इस तरह बेक़ुसूर हूँ मैं भी।। कौन मेरे क़रीब आयेगा आज तो ख़ुद से दूर हूँ मैं भी।। साथ यूँ भी नहीं चलोगे तुम और फिर थक के चूर हूँ मैं भी।। ताबिशें अपनी मत दिखा नादां जान ले कोहे तूर हूँ मैं भी।। उनकी मग़रूरियत से हर्ज़ नहीं क्योंकि कुछ कुछ ग़यूर हूँ मैं भी।। कोई दावा नहीं मदावे का इब्ने-मरियम ज़रूर हूँ मैं भी।। मत कहो साहनी अनलहक़ है पर उसी का ज़हूर हूँ मैं भी।। बेहुज़ूर/अनुपस्थित बेक़ुसूर/निरपराध ताबिशें/गर्मी कोहे-तूर/आग का पहाड़ मगरूरियत/घमण्ड ग़यूर/स्वाभिमानी मदावा/इलाज़ इब्ने-मरियम/पवित्र माँ का बेटा , मसीह अनल-हक़/अहम ब्रम्हास्मि, ईश्वर ज़हूर/प्राकट्य सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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होठ तुमको गुनगुनाना चाहते हैं प्रियतमें तुम गीत हो क्या। नैन जिस पर रीझ जाना चाहते हैं तुम वही मनमीत हो क्या।। कर्ण मन के चाहते है क्यों श्रवण हर क्षण तुम्हारा देह लय क्यों ढूंढती है संगतिय आश्रय तुम्हारा नाद अनहद जाग जाना चाहते हैं तुम वही संगीत हो क्या।। प्रीति प्रण की जीत हो क्या........ क्यों रसेन्द्रिय चाहती है नित्य प्रति वर्णन तुम्हारा कामना की कल्पना है रतिय आलिंगन तुम्हारा जो शिवे मधुयामिनी में गूँजता है तुम वही नवगीत हो क्या।। साधना अभिप्रीत हो क्या........
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कुछ लोग ख़ुद को वरिष्ठ, गरिष्ठ या साहित्य के क्षेत्र का बड़ा ठेकेदार होने के मुगालते में अक्सर नई कलमों के कार्यक्रम/आयोजन आदि के बारे में पोस्ट डालने पर नाराजगी या खिन्नता अथवा एतराज वाली पोस्ट्स डाला करते हैं। भाई इसका मतलब आप अदीब नहीं पूरी तरह से बेअदब , खैर जो भी हों हैं। दरअसल मध्यप्रदेश के एक तथाकथित धुरन्धर हास्य कवि उनके व्हाट्सएप ग्रुप और फेसबुक पर अपने काव्य कार्यक्रमों के फोटो-बैनर इत्यादि पोस्ट कर देते होंगे। उन महाशय ने नवोदितों को चेतावनी के लहजे में लिखा कि अगर वे इस पर उतर आये तो नवोदित परेशान हो जाएंगे क्योंकि उनके सैकड़ों कार्यक्रम लगे रहते हैं। उन्होंने जाने कितनों को दिल्ली लेवल का कवि बना दिया । और जिस पर दृष्टि वक्र हुई तो उसका सिंह भी बकरी हो गया। वैसे अगर ये इतने धुरन्धर होते तो इन्हें अपने बारे में बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बक़ौल डॉ सागर आज़मी ," तुझे एहसास है गर अपनी सरबुलन्दी का तो फिर हर रोज़ अपने हाथ नापता क्यों हैं।।, मुझे लगा कि ऐसे लोगों को बताना जरूरी है कि ...
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वे हिंदी के मित्र पुरुष हैं। पर सेवा में पितृ पुरुष हैं।। साहित्यिक उत्सव करते हैं आयोजन अभिनव करते हैं नई कलम को सदा बढ़ाते निश्छल मन से उन्हें पढ़ाते भावुक सरल चरित्र पुरुष हैं। नव कवियों के पितृ पुरुष हैं।। सबको हैं उत्साहित करते प्रतिभायें सम्मानित करते पर सम्मान नहीं लेते हैं कुछ प्रतिदान नहीं लेते हैं सचमुच बड़े विचित्र पुरूष हैं। ये कविता के पितृ पुरुष हैं।। वाणीपुत्र विनोद त्रिपाठी हैं वरिष्ठ कलमों की लाठी नई कलम को यदि बल देते शुष्क कलम को भी जल देते मन के स्वच्छ पवित्र पुरुष हैं। वे भाषा के पितृ पुरूष हैं।। सुरेश साहनी
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फरीहा नक़वी फरमाती हैं," हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं इक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं ।। माज़रत के साथ कहना पड़ रहा है, "वक़्त बहुत है हम लोगों के पास मगर तोहफे में इक घड़ी नहीं दे पाते हैं।।, अब होना तो यही चाहिये था कि मामला शांत करने या कराने के लिए कुछ बड़ी लेखिकायें घड़ी दे सकती थीं। लेकिन फेसबुक को घड़ी विवाद में अखाड़ा बना दिया। जिसमें बड़े तो बड़े हम जैसे छुटभैये कवि भी कूद पड़े।लेकिन एक बात मेरी भी समझ में नहीं आयी कि हम भारतीय घड़ी को इतना उपयोगी क्यों मानते हैं। जापान का प्रधानमंत्री सोचता है जहाँ चार घण्टा लोग आरती नमाज में गुजार देते हैं ,वहाँ बुलेट ट्रेन की ज़रूरत आश्चर्य का विषय है। हमारे यहाँ तो लोग सालोसाल साधना में गुजार देते हैं। मुनव्वर साहब ने कहा भी है कि, " ये सोच कर कि तिरा इंतिज़ार लाज़िम है तमाम-उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा।।, और हम है कि घड़ी को लेकर घड़ियाल हुए जा रहे हैं।हमारे शहर में दसियों घण्टाघर थे। आज शायद दो एक की सुईयाँ सही सलामत हों , और हम है कि एक घड़ी को लेकर खुद बिगबेन हुये जा रहे हैं।अरे इतना महत्वपूर्ण है तो कबीर की तरह...
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सच मे होते सभी अगर अपने। यूँ नहीं घोलते ज़हर अपने।। आदमी का कोई भरोसा क्या आज होते हैं जानवर अपने।। ज़िन्दगी चार दिन का डेरा है छूट जाते हैं दैरो-दर अपने।। ग़ैर की बदनिगाह क्या देखें अब तो होते हैं बदनज़र अपने।। कोई मरहम असर नहीं करता चाक करते हैं जब ज़िगर अपने।। तेरी दुनिया मे अजनबीपन है लौट जाऊंगा मैं शहर अपने।। थे सुकूँ की तलाश में लेकिन साहनी लौट आये घर अपने।। 14/04/2019 सुरेश साहनी,कानपुर
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ये नहीं है कि डर से बाहर हैं मुतमयिनी में घर से बाहर हैं क्या करेंगे तेरा अदम लेकर जब अज़ल से दहर से बाहर हैं हम तो ख़ारिज हैं नज़्मगोई में और ग़ज़लें बहर से बाहर हैं शेर होना है फिर तो नामुमकिन सारे जंगल शहर से बाहर हैं तेरे सागर में कुछ कमी होगी कितने मयकश गटर से बाहर हैं मंज़िलों की सदा से क्या लेना हम किसी भी सफ़र से बाहर हैं उस ने दुनिया से फेर ली नज़रें या कि हम ही नज़र से बाहर हैं मुतमईनी/संतुष्टि अदम/स्वर्ग अज़ल/सृष्टि के आरंभ, नज़्म/कविता ख़ारिज/अस्वीकृत, बहिष्कृत सागर/ शराब, मयकश/शराबी, गटर/नाला सदा/पुकार दहर/ बुरा समय या परिस्थिति सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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बेशक़ कुछ दिन वेट करेंगे। पर ख़ुद को अपडेट करेंगे।। हिंदी डे आने वाला है खुल कर सेलिब्रेट करेंगे।। हिंदी यूँ अपनायेंगे हम हिंदी में डीबेट करेंगे।। पिज्जा बर्गर खाएंगे हम चीनी डिश से हेट करेंगे।। अंग्रेजी है प्यार हमारा पर हिंदी संग डेट करेंगे।। मेर्रिज हिंदी में करनी है बेशक़ कुछ दिन वेट करेंगे।। पूर्ण स्वदेशी अपनाकर हम भारत अपटूडेट करेंगे।।
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हाँ तो गद्दी पे बाप बैठे हैं। हम समझते थे आप बैठे हैं।। इस तरफ कुछ अनाप बैठे हैं। तो उधर कुछ शनाप बैठे हैं।। लोग कल भी पढ़े लिखे कब थे अब भी अंगूठा छाप बैठे हैं।। कौन है आज दीन का मुंसिफ सब लिये दिल में पाप बैठे हैं।। राम की राह पर नहीं चलते कर दिखावे की जाप बैठे हैं।। है बरहना सुरेश इस ख़ातिर आस्तीनों में सांप बैठे हैं।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर, 9451545132 अनाप-शनाप /बेकार, दीन/ धर्म, मुंसिफ/ धर्माधिकारी, न्यायाधीश बरहना/ नग्न
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हठधर्मी से करना आग्रह ठीक नहीं। और संत से तनिक दुराग्रह ठीक नहीं।। धर्म समन्वय सिखलाता है दुनिया को नुक्कड़ नुक्कड़ फैले विग्रह ठीक नहीं।। राग द्वेष मद मत्सर निंदा अनुचित है किसी भाँति रखना पूर्वाग्रह ठीक नहीं।। ज़्यादा चिन्ता संग्रहणी बन जाती है कुण्ठाओं का इतना संग्रह ठीक नहीं।। हां समष्टि के हित में लेना सम्यक है किंतु स्वयं के हित में परिग्रह ठीक नहीं।। कहा राम ने लक्ष्मण शर संधान करो किसी दुष्ट से अधिक अनुग्रह ठीक नहीं।। फिर सुरेश कैसे शायर हो सकता है गोचर है प्रतिकूल और ग्रह ठीक नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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शोर है ग़मज़दा की ख़ामोशी। उफ्फ ये कातिल अदा की ख़ामोशी।। कब सुनेगा सदा की ख़ामोशी। कब मिटेगी ख़ुदा की ख़ामोशी।। कितनी हंगामाखेज है यारब इक तेरे मयकदा की ख़ामोशी।। शोर बरपा गयी मिरे दिल में क्यों मिरे हमनवा की ख़ामोशी।। उसकी मुस्कान बात करती है जैसे मोनालिसा की ख़ामोशी।। बोल पड़ती है उसकी गज़लों में साहनी की बला की ख़ामोशी।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
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कहा था जिसने हमें रास्ता बतायेगा। कहाँ पता था वही शख़्स लूट जायेगा।। ख़ुदा ने गोल बनाई है इसलिये दुनिया भटक भी जाये जो चाहे तो लौट आयेगा।। दुकान अपनी चलाने को ही तो कहता है सराये-फ़ानी में मौला का घर बनायेगा।। तेरी मशीन है या सिक्का कोई इकपहलू जो तुझसे दाँव लगायेगा हार जायेगा।। ख़ुदा भी इब्न-ए-आदम से यूँ परेशां है किसी को अपना ठिकाना नहीं बतायेगा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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बेटे का बेटा फिर उनका पोता याद करे। यह काफी है उनको उनका अपना याद करे।। बेहतर होता उनके लेखन पर चर्चा होती लेकिन अपना बोला कोई कितना याद करे।। इतनी सारी कौन किताबें रखता है घर में चले गये अब बाबा जी का घण्टा याद करे।। लोग बिहारी , चन्द्रसखी , केशव को भूल गये इनको कल क्यों टोला और मुहल्ला याद करे।। पर सुरेश चाहेंगे बेशक़ अपने मत मानें लेकिन उनकी कविताओं को दुनिया याद करे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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बिछड़ के फिर से मेरा कारवां मिला ही नहीं। मुझे ज़मीं तो मिली आसमां मिला ही नहीं।। बिछड़ गये जो दुआओं के हाथ फिर न मिले तपिश ओ धूप मिली सायबां मिला ही नहीं।। मिली भटकती मेरी तिश्नगी सराबों में मुझे नदी में भी आबे-रवां मिला ही नहीं।। सिफ़र है मेरे लिये सब जहान के हासिल अगर मुझे मेरा अपना ज़हां मिला ही नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश। एक सहज है निर्धन भारत दूजा लगे विदेश।। यह कर्तव्य युवाओं का है धर्मध्वजा लहरायें और हमारे बच्चे शासक बन कर हुक्म चलायें मोह त्याग हमने बच्चों को भेजा पढ़ें विदेश। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... जनता आठो याम निरन्तर पैदल चल सकती है जनरल डिब्बों के वग़ैर भी गाड़ी चल सकती है टोल नहीं लेंगे पैदल से ये है छूट विशेष। एक राष्ट्र में रहते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... इन अमीर बच्चों से शिक्षित भारत शिक्षित होगा निर्धन बच्चों की शिक्षा से देश अविकसित होगा भारत में महंगी शिक्षा लाएगी बड़ा निवेश। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... कब शिक्षा को है हमने पूँजी से बेहतर माना है शिक्षक को भी श्रमजीवी सम चाकर ही माना है शिक्षा से भी अधिक बड़ा है पूँजी का परिवेश।। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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चुप रहो इक मुकम्मल ग़ज़ल बन सके प्यार का खूबसूरत महल बन सके ताज तैयार होने तलक चुप रहो।। ख़्वाब तामीर होने तलक चुप रहो पूर्ण तस्वीर होने तलक चुप रहो घर के संसार होने तलक चुप रहो।। राज तकरार में हैं छुपे प्यार के प्यार बढ़ता नहीं है बिना रार के रार मनुहार होने तलक चुप रहो।। आप इनकार करते हो जब प्यार से प्रेम की जीत होती है इस हार से मन से इक़रार होने तलक चुप रहो।। चुप रहो प्यार होने तलक चुप रहो।।...... मेरे चर्चित गीत "चुप रहो' के कुछ अंश सुरेश साहनी कानपुर 9451545132